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________________ यक्ष, क्षेत्रपाल बलभद्र-नारायण आदि की सुन्दर, कंकाली-टीला आगरा-गोवर्धन सड़क (राजकलात्मक, नयनाभिराम मूर्तियों को गढ़ गया है। मार्ग) के एक कोण पर 'मथुरा' नगर के दक्षिणजैन-शिल्प-कला का यह विशाल-भण्डार, पाषाण, पश्चिमी किनारे पर स्थित है। यह सात टीलों धातु और वास्तुकला की अनुपम प्रतिनिधि कृतियाँ का समूह है। इन टीलों से चौरासी के मन्दिर हमें पुरातत्त्व राजकीय-संग्रहालयों में सुरक्षित और उसके आस-पास अनेक टीलों की लम्बी उपलब्ध हैं। शृंखला चली गई है । इस टीले की खुदाई में 47 फूट व्यास का ईटों का एक स्तूप तथा दो प्राचीन भारतवर्ष के विभिन्न-अन्चलों के भू-गर्भ से मन्दिरों के अवशेष मिले है। इसके अतिरिक्त प्राप्त जैन-प्रतिमानों अथवा प्रतीकों में प्रतिमाओं सप्तर्षि-टीला और कृष्ण-जन्म-भूमि प्रादि से भी की मौलिक-मुद्राएँ एक सरीखी होती हैं । परन्तु अनेक जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। ये पुरातत्त्व की उनके परिकर आदि में प्रान्तीयता का प्रभाव प्राप्त बहुत सामग्री मथुरा, लखनऊ, प्रयाग, अवश्यमेव निहित रहता है। जो ध्यान पूर्वक । कलकत्ता, लन्दन आदि विविध पुरातत्त्व-संग्रहालयो परीक्षण करने पर स्पष्ट हो जाता है। नृतत्त्व- में प्रदशित हैं। शास्त्र की दृष्टि से अध्ययन करने पर ये तीन प्रकारों में विभक्त मिलता है। उत्तर-भारतीय. 'मथुरा' से प्राप्त दो प्राचीनतम् जैन-विम्वों पूर्वी-भारतीय, और दक्षिण-भारतीय तीनों प्रकारों (प्रतिमाओं) पर लेख है । एक ई० सन् पूर्व तीसरी की प्रतिमाये भू-गर्भ से प्राप्त हो चुकी हैं। शताब्दी की है। एक रंगरेज महिला ने इस प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया था। (इपीग्रफिया, इण्डिका मथुरा नगर के अन्चलों और विशेष कर 1-384)। और दूसरी ई० सन् 26 की है, कंकाली-टीले की खुदाई में जितनी वहद-मात्रा में एक गंधी-व्यास की पत्नी 'जिनदासी' ने इस अर्हन्त जैन-पूरातत्त्व-अवशेष प्राप्त हये हैं, उतनी भारतबर्ष भगवान की प्रतिमा को निर्माण करा कर स्थापित के अन्य किसी भाग से नहीं। इसी प्रकार देवगढ़। किया था। (जर्नल आफ दी रायल एशिया, सी० भी जैन-कला का एक महान केन्द्र है। यहाँ जैन- भा. 5 पृ० 184)। पुरातत्त्व का वैविध्य प्राप्त है। जैन-प्राचीनप्रतिमानों का बाहुल्य यहाँ है। इतनी प्राचीन भगवान मुनिसुव्रतनाथ की एक प्रतिमा प्रतिमायें सम्भवतः भारतवर्ष के अन्य किसी कोण कंकाली-टीले से वि० सं० 19 को प्राप्त हई है। में नहीं प्राप्त होंगी। देवगढ में पंचपरमेष्ठियों, सिंहासन पर का लेख इस प्रकार से है :-यह तीन तीर्थंकर की माताओं, शासनदेवियों (यक्षियों) यक्षों, पंक्तियों में विभक्त है;युग्म व स्वतन्त्र, प्रतिमायें एवं मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। प्रथम पंक्ति-1. सं० 19 ब्र 4 दि. 20 एतस्यां कंकाली टीले की सन् 1888 से 1891 तक पूर्षायां कोट्टिये गणो वेरायां चार वर्षों की खुदाई में (केवल मात्र इसी टीले से) 737 कलाकृतिर्या जो प्राप्त हुई हैं, वे सभी द्वितीय पंक्ति-2. को अथ वुधहस्ति अरहतो नन्दि दिगम्बर जैन परम्परा से संबंधित हैं। एक भी (प्रा) वर्तस् प्रतिमं निवर्तयति श्वेताम्बर प्राम्नाय की नहीं हैं। इससे सिद्ध होता तृतीय पंक्ति-3. भाविय॑ये श्राविकाये (दिनाये) है कि उस काल तक श्वेताम्बर-धर्म का प्रादुर्भाव दानं प्रतिमा बोद्धे थपेदेवनिर्मित नहीं हुअा था। शाखायां 2135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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