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________________ मूर्ति के पूर्व भी कोई तीर्थकर प्रतिमा रही होगी सौभाग्य से इस सिरदल पर अंकित कथानक जिसका प्रावक्ष मात्र ही बचा है। क्योंकि कुडल, का वर्णन जैन धर्म के दो ग्रन्थों में उपलब्ध हो उत्तरीय प्रादि का अभाव है। जिससे लगता है कि जाता है। इसमें प्रथम के अनुसार नीलांजना के ध्यानस्थ होने के पूर्व की स्थिति में इसे इस प्रकार मरण से ऋषभ भगवान् में वैराग्य जागृत हुा । दर्शाया गया है। इसी के समीप हाथ जोड़े उत्त- द्वितीय स्रोत से ज्ञात होता है कि ऋषभ के चक्ररीय डाले, कुडल पहने एक पुरुष मूर्ति है जिसका वर्ती सम्राट होने पर इन्द्र उपस्थित हुए और मुख और पेट से नीचे का भाग टूटा है किन्तु मुख उन्होंने नृत्य के लिये इसमें पारगत नीलांजना सामने बैठी ध्यानस्थ तीर्थकर प्रतिमा की ओर है । अप्सरा को नियुक्त किया जिसने अपने लास्यपूर्ण कहीं ऐसा तो नहीं कि यह इन्द्र हों और अर्हन नृत्य से भगवान ऋसभ सहित सभी दर्शकों को भगवान की वन्दना करते बनाये गये हों। इसी मोहित कर लिया था किन्तु इसी नृत्य की अवधि प्राकृति के साथ चार पुरुष बने हैं जो कुंडल, उत्त- में उसकी आयु पूर्ण हो गयी जिसे जानकर भगरीय व अधोवस्त्र पहने खड़े हैं। यहां सभी के वान आदिनाथ को अत्यन्त दुख हुआ और साथ ही मुख नृत्यांगना के नृत्य की ओर हैं। इसके नीचे उनके मन ये वैराग्य का भाव अंकुरित हो गया। दो पुरुष बैठे हैं और नृत्य को देख रहे हैं। एक इसी घटना की नृत्य से उठकर जाते हुए तथा बैठे पुरुष ने बांये घुटने पर वस्त्र बांध रक्खा है ध्यान करते हुए स्थितियों में सिरदल पर उन्हें मानों जमकर नृत्य देखेगा। इसके बाल पीछे को सफलतापूर्वक प्रतिबिम्बित किया गया है । प्रस्तु, हैं। इसी के समीप एक पुरुष धोत्ती पहने खड़ा प्रतिमा विज्ञानीय साक्ष्यों यथा ऋषभ की ढीली है । इसके बाल भी पीछे हैं और बायां हाथ बगल पलथी, श्रीवत्स का सूक्ष्मांकन, मात्रभूमि पर बैठे में बैठे पूर्ववणित पुरुष के कन्धे पर टिकाये हैं। दिखलाना, अन्य प्राकृतियों की बन झोंपड़ी के अन्दर दो वादक एक और नर्तकी है और खम्भों की बनावट आदि अकाट्य प्रमाणों से यह दूसरी ओर ढोल वादक अन्य वादक तथा एक और कलारत्न शुगकालीन अर्थात् दूसरी श प्राकृति है। इसी खम्बे के बाहर भी एक खंडित का प्रतीत होता है जिसका वर्णन आगे चलकर प्राकृति है। नृत्यांगना के वस्त्र, अलंकरण तथा संयोग से साहित्यक स्रोतों में भी उपलब्ध हो जाता वादकों के शिरोवेष्टन, आभूषण, मुखाकृति, शारी- है। इस कलाकृति को जैन संस्कृति एवं कला रिक संरचना तथा दर्शकों को पगड़ी, धोत्ती बांधने मर्मज्ञ डा. ज्योति प्रसाद जैन, यू. पी. शाह एवं की शैली, उत्तरीय धारण करने का ढंग हमें भर- डा. नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी प्रभति विद्वानों ने हुत, सांची की प्रतिमानों और शुगकालीन मथुरा नीलांजना नृत्य के रूप में ठीक ही पहचाना है। आदि से उपलब्ध मिट्टी पर बनी मूर्तियों पर अंकित इस प्रकार जहां तक जैन कथानकों के विलेखन का प्राकृतियों से अभिन्न साम्यता लिये प्रतीत होते । सम्बन्ध है यह कलारत्न उक्त प्रमारणों के आधार पर सर्व प्राचीन स्वयं सिद्ध हो जाता है। इसे ऋषभ वैराग्य पट्ट के नाम से कलाविदों ने समीइस सिरदल के नीचे की ओर भी दो खांचे चीन ही अभिहित किया है । अधुना, प्रस्तुत कटे हए हैं, वाकी मोर सपाट है और इस पर । प्राचीनतम जैन कलाकृति, पुरातत्व संग्राहालय, कोई भी लेख आदि नहीं है। लखनऊ के संग्रह की शोभा बढ़ा रही है। 2122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014033
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1981
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Biltiwala
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1981
Total Pages280
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size20 MB
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