SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है और न होगा। यह निश्चित है कि प्राणों से को जीवन में लाने के लिये किस विचार को अधिक प्रियतर वस्तु दूसरी कोई नहीं है। महत्व दिया जाय इस विषय में मतभेद रहा हो परन्तु ब्राह्मण विचारधारा भी समय और दम को अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः ।। जीवन विकास के लिए आवश्यक मानने लग गई अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः ॥ .. थी । उन्होने इस विचार को प्रचार में परिवर्तित महा० अनु० पर्व ।16-28 करने के लिये व्यवस्थित कार्यक्रम बनाया। ब्रह्म-अहिसा ही परम धर्म है, अहिंसा ही परम दम चर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास यह चार आश्रम है, अहिंसा ही परम दान है और अहिंसा ही परम निर्धारित किये। 25-25 वर्षों का एक आश्रम तय तप है। किया । परन्तु श्रमण विचारधारा ने शम,दम आदि धर्म के पालन के लिये आयु या समय की मर्यादा अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम् । नहीं बांधी। व्यक्ति की क्षमता और योग्यता पर अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् ॥ निर्भर रखा कि वह चाहे जिस उम्र में संन्यास या महा० अनु० पर्व 116-29 निवृत्ति ले । आयु या समय की कोई मर्यादा नहीं बांधी। -अहिंसा ही परम यज्ञ है, अहिंसा ही परम फल है । अहिंसा ही परम मित्र है और अहिंसा ही परम चिन्तन में भले ही अध्यात्म का प्रभाव बढ़ा हो सुख है । महाभारत की तरह गीता में पूर्ण रूप से फिर भी भौतिक सुख की चाह कम हुई हो ऐसा समन्वय दिखाई देता है। नहीं लगता । हिंसा से त्रस्त भारत में भी हिंसा लगे हये आघात से हिंसा को अधर्म और बिलकुल बन्द हो गई हो ऐसा नहीं लगता । भौतिक अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म माना जाने लगा हो फिर सुखों को विधिवत् शास्त्र या धर्मसम्मत रूप देने के भी वह सामाजिक धर्म नहीं बन सका था। प्रवृत्ति प्रयास हिंसा में विश्वास रखनेवाले धार्मिकों की ओर से निवृत्ति श्रेष्ठ माने जाने लगी। बाह्य सुखों से से चल ही रहे थे। .. प्रांतरिक सुखों का मूल्य अधिक लगने लगा किन्तु जिस चिन्तक या विचारक को इसकी प्रतीति होती इधर ऋषि-मुनि और चिन्तकों को लगा कि वह गृहत्याग कर जंगल में चला जाता आत्म कल्याण अहिंसा सद्गुणों को केवल ऋषि-मुनियों तक ही साधने के लिये । यज्ञ में होनेवाली हिंसा निन्द्य मानी सीमित न रखकर जन-समाज में व्यापक बनाना जाने लगी थी पर उस काल में अहिंसा सामाजिक चाहिए । इसी काल-प्रवाह में 2800 साल पूर्व एक धर्म नहीं बन सका था। किन्तु सामाजिक धर्म मनीषी का जन्म हुआ जिनका नाम पार्श्व था । बनने की पार्श्वभूमि तैयार हो गई थी। अहिंसा धर्म उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय व अपरिग्रह को समाजबनने की प्रतिक्रिया शुरू हो गई थी। अहिंसक यज्ञ धर्म बनाने का प्रयत्न किया। इसके पीछे यह श्रेष्ठ माने जाने लगे। दृष्टि रही कि भले ही इन चातुर्यामों का सामान्य व्यक्तियों के लिये पूर्ण रूप से पालना संभव न हो इस काल में ब्राह्मण व श्रमण विचारधारा तो भी उन्हें जीवनमूल्यों में स्थान मिले और लोग का पर्याप्त समन्वय हो गया था। भले ही दोनों उसका यथाशक्ति पालन करें । उस समय में परिग्रह विचारधाराएं अलग-अलग प्रवहमान होती हों पर में धन-संपत्ति ही नहीं पर स्त्री का भी समावेश होता उनमें कटुता नहीं थी। भले ही किस विचारधारा था इसलिये अपरिग्रह में ब्रह्मचर्य पा जाता था। 1-41 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy