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________________ दानं हि भूता भयदक्षिणायाः सर्वाणि दानात्यधितिष्ठतीह । तोरणां तनुं यः प्रथमं जहाति सोऽत्यन्तमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः ॥ - संसार में प्राणियों को अभय की दक्षिरणा का दान देना सब दानों से बढ़कर है । जो पहले ही हिंसा का त्याग कर देता है वह सब प्राणियों से अभय होकर मोक्ष पाता है । यवन्यविहितं नेच्छेदात्मनः कर्म पुरुषः । न तत् परेषु कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मनः ।। - जिस श्रन्यकृत व्यवहार को मनुष्य अपने लिये नहीं चाहता वह व्यवहार वह दूसरों के प्रति भी न करे । वह जाने कि जो व्यवहार अपने को अप्रिय है, वह दूसरों को प्रिय कैसे होगा । जीवितं यः स्वयं चेच्छेत् कथं सोऽन्यं प्रघातयेत् । यद् यदात्मनि चेच्छेत् तत् परस्यापि चिन्तयेत् ॥ - जो स्वयं जीना चाहता है, वह दूसरों का घात कैसे कर सकता है ? मनुष्य अपने लिये जो चाहे वही दूसरे के लिये भी सोचे । योभयः सर्वभूतानां स प्राप्नोत्यभयं पदम् । - जो सर्वभूतों को प्रभय देने वाला है, वह अभयपद को प्राप्त कर लेता है । यस्मादुद्विजते लोकः सर्वो मृत्युमुखादिव । वाक्क्रूराहू दण्डपारुष्यात् स प्राप्नोति महद् भयम् ॥ - जो वाक्क्रूर, दण्डक्रूर होता है और जिससे सर्व लोक वैसे ही उद्वेग को प्राप्त होते हैं जैसे मृत्यु के मुख से वह पुरुष महान् भय को प्राप्त होता है । यस्मान्नोद्विजते भूतं जातु किंचित् कथंचन । प्रभयं सर्वभूतेभ्य स प्राप्नोति सदा मुने ॥ - जिससे कोई भी जीव किसी प्रकार किंचित् भी 1-40 Jain Education International उद्वेग को प्राप्त नहीं होता वह सदा सर्व जीवों से अभय प्राप्त कर लेता है । अव्यवस्थित मर्यादेविमूढैर्नास्तिकैर्नरैः । संशयात्मभिरव्यक्तं हिंसा समनुवर्णिता ।। - जो पुरुष मर्यादा में अनवस्थित हैं, विमूढ़ है, नास्तिक हैं, जिनकी आत्मा में संशय है एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों द्वारा ही हिंसा अनुमोदित है । श्रहिंसा सर्वभूतानामेतत् कृत्यतमं मतम् । तत् पदमनुद्विग्नं वरिष्ठं धर्मलक्षणम् ॥ - सब प्राणियों के लिए अहिंसा ही सर्वोत्तम कर्त्तव्य है— ज्ञानियों ने ऐसा माना है । यह पद गरहित, वरिष्ठ और धर्म का लक्षण है । शरण्य सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु । प्रनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा ॥ महा० अनु० पर्व 115-28 - अहिंसक सर्व प्राणियों का शररणभूत होता है । वह सबका विश्वासपात्र होता है । वह लोक में प्राणियों में उद्घोग पैदा नहीं करता और न कभी किसी से उद्विग्न होता है । न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किचन विद्यते । तस्माद् दयां नरः कुर्याद् यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥ महा० अनु० पर्व 116-8 - लोक में प्रारणों से बढ़कर प्रिय वस्तु दूसरी नहीं है । तः मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, वैसे ही दूसरों पर भी दया करे । प्राणदानात् परं दानं न भूतं न भविष्यति । न ह्यात्मनः प्रियतरं किचिदस्तीह निश्चितम् ॥ महा० अनु० पर्व 116-16 - प्रारण दान से बढ़कर दूसरा कोई दान न हुआ महावीर जयन्ती स्मारिका 76 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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