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________________ जिधर हमें जाना है उधर तो हमारा एक पग भी श्रागे नहीं बढ़ा बल्कि हम तो उल्टे पांव चल रहे हैं मगर हमारा शोर है कि हम आगे बढ़ रहे हैं । बड़ा शोर है २५०० वें निर्वारण शताब्दी वर्ष में जितना साहित्य प्रकाशित हुवा उतना एक लेखक के शब्दों में गत दो सौ वर्षों में नहीं हुवा किन्तु क्या यह सच नहीं कि मौलिक साहित्य उनमें बहुत कम था ? अधिकांश साहित्य एक दूसरे की नकल अथवा अनुकरणमात्र था । एक लेखक की तो दो पुस्तकें दो भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न स्थानों से प्रकाशित हुई किन्तु दोनों में नाम भेद या एक दो पैरों के भेद के अतिरिक्त परे के पैरे ज्यों के त्यों थे । क्या इससे यह ज्ञात नहीं होता कि वह लेखक एक लघुपुस्तिका भी नये शब्दों या विचारों में नहीं लिख सकता । ऐसे ही हैं संस्थानों के संचालक जो पुस्तक का मैटर नहीं लेखक का नाम देखते हैं । लेखकों के पास भी किसी के लेख की सत्यता की जांच करने को समय कहां ? एक लेखक ने महावीर के कल्याणकों आदि की अंग्रेजी तारीखें दे दी तो दूसरे ने झट उसे अपने लेख में लिख मारा। हमें खेद है कि सावधानी रखते हुए भी हमारी स्मारिका में भी वे तारीखें प्रकाशित हो गई। विरोधक स्वरूप कई सप्रमाण लेख और पत्र हमें प्राप्त हो गये कि स्मारिका जैसी प्रामाणिक पुस्तिका में वे कैसे आ गए ? कई लेखों में से ऐसा ही एक लेख हम इस स्मारिका में प्रकाशित कर रहे हैं। पाठकों से अपनी इस असावधानी हेतु हम क्षमाप्रार्थी हैं। ऐसा ही महावीर की जन्मकुण्डली के सम्बन्ध में है जिसका बहुत प्रचार है उस पर भी मुनिश्री चन्दनमलजी ने ज्योतिषशास्त्रों के अनुसार हमारी सन् १९७४ की स्मारिका में आपत्ति उठाई है। कई पुस्तकों में मथुरा पुरातत्व संग्रहालय के 'हरिनाई गणेश' अथवा नैगमेश की मूर्ति और संगमदेव को एक ही समझ कर उसके चित्र भी छाप दिये हैं जो कि उनकी दयनीय अज्ञानता को प्रकट करता है । अभिधान राजेन्द्रकोष के अनुसार यह इन्द्र की पैदल सेना का सेनापति तथा देवानन्दा के गर्भ से महावीर के गर्भ का परिवर्तन करने वाला देवता है । उत्तरपुराण के सप्ततितम और एक सप्ततितमपर्व के अनुसार यह देव देवकी के युगल पुत्रों की रक्षा करने वाला तथा घोड़े का वेष धारण कर श्रीकृष्ण आदि को द्वारावती तक ले जाने वाला देवता है । महावीर के बल परीक्षा हेतु प्राने वाला संगमदेव बिल्कुल ही पृथक् है । ऐसी ही बात महावीर के मित्रों के नामों के सम्बन्ध में भी है | पं० नाथूरामजी प्रेमी के अनुसार चामुण्डराय कृत कन्नड भाषा का पुराण का आधार गुणभद्र का उत्तरपुराण है और गुरणभद्र के उत्तरपुराण के पर्व ७४ के श्लोक २६० में शब्द 'काकपक्षधरै: ' है जिसका अर्थ लम्बे-लम्बे बालों वाले (अथवा जुल्फों वाले) होता है यदि इस शब्द से काकधर और पक्षधर ये नाम महावीर के मित्रों के निकाले जावें तो यह शब्द द्विवचनान्त होना चाहिये तीन नाम तो इससे निकल ही नहीं सकते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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