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________________ है ? तू तो अपना स्वार्थ देख । देख, तेरी पुस्तकें छपेंगी, बड़े-बड़े नेताओं के साथ तेरे चित्र छपेंगे, तुमे पुरस्कार मिलेंगे, कई सभा सोसाइटियों में उच्च पद प्राप्त होंगे। अरे, प्राचार्य उमास्वाति ने यह ही कहा है । 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' तू मुझे ऊंचा चढ़ा, मैं तुझे चढ़ाऊंगा, तेरी कई कठिनाइयां दूर करूंगा। बड़े-बड़े सेठ मेरी पंजी में हैं। - इस सूत्र का यह अर्थ हमने नहीं समझा, इसलिए हमने न तो कोई पुस्तक लिखी और न हमारी किसी पुस्तक का प्रकाशन हुवा। और भी कई चोटी के विद्वान् ऐसे हैं जो सूत्र के इस अर्थ से अनभिज्ञ हैं फलस्वरूप उनकी लिखी हुई पुस्तकें और शोधप्रबंध पालरियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। प्रतिवर्ष उनके प्रकाशन की व्यवस्था करा देने हेतु ४-५ पत्र तो हमें भी मिल ही जाते हैं किन्तु हम हमारी ही व्यवस्था नहीं कर पाते उनकी तो सहायता ही क्या करें। आचार्य उमास्वाति का ही एक दूसरा सूत्र है-'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः'। प्राचार्य उमास्वाति ने चाहे जिस अर्थ में इसका प्रयोग किया हो किन्तु आज इसका भी दूसरा ही अर्थ अर्थात् 'द्रव्य का प्राश्रय पाकर गुणहीन भी गुणवान् हो जाते हैं" हम वाणी से नहीं तो कार्यों से प्रचारित कर रहे हैं। यदि आपके पास पैसा है तो आपके प्राचारों से क्या लेना देना है ? पैसा दीजिये, धर्मचक्र पर बैठिये, बड़ी-बड़ी सभात्रों के सभापति बनिए, समाज पर एक छात्रराज कीजिए । कौन पूछता है आपके पैसे का स्रोत क्या है ? बड़े-बड़े भाषण दीजिये -चिन्ता नहीं आपके लिए काला अक्षर भैंस बराबर हो । अजी हम पंडित और डाक्टर जिन्दाबाद ! थोड़ी अण्टी ढीली कीजिए आपके भाषण की हजारों प्रतिलिपियां तैयार-अापके स्थान में भाषण भी हम ही पढ़ देंगे आपको कष्ट उठाने की क्या जरूरत है ? अाज समाज की बड़ी विचित्र स्थिति है। एक ओर वे लोग हैं जो यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं दूसरी ओर जो प्रत्येक प्रकार का प्रतिबन्ध तोड़ कर फेंक देना चाहते हैं । मध्यममार्ग के अनुसाओं का या तो कहीं पता नहीं या फिर वे नगण्य और प्रभावहीन हैं । इसीलिए एकता के सारे प्रयत्न विफल हो रहे हैं और भविष्य में भी उनके सफल होने की आशा अधिक नहीं तो क्षीण अवश्य है। एक बार एक विकृत मस्तिष्क व्यक्ति घोड़े पर आमेर से जयपुर पा रहा था । घोडे का मुह था पामेर की ओर मगर सवार उस पर बैठा था जयपुर की ओर मुंह करके । स्वाभाविक ही घोड़ा समय के साथ-साथ अपने लक्ष्य स्थान जयपुर से दूर होता जा रहा था क्योंकि उसका मुह आमेर की अोर था मगर सवार जयपुर की ओर मुंह करके ही समझ रहा था कि वह जयपुर जा रहा है। ठीक यह ही अवस्था ज हमारी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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