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________________ पहुंचाते रहे। उसी श्रृंखला में स्मारिका का यह १३ वां अंक है। इस काम का भार निश्चय ही हमारे जैसे नगण्य व्यक्ति के लिए तो उसके बूते के बाहर का था किन्तु श्रद्धेय गुरुवर्य का वह शान्त, सौम्य किन्तु कर्मठ चेहरा हमें अपनी कमजोरियों का भान नहीं होने देता अपितु उनकी वह याद हममें अदम्य साहस और उत्साह का संचार करता रहा है। नतमस्तक हैं हम श्रद्धा और विनय से उस गुरुदेव के पावन पूत चरणों में । हमें प्रतिवर्ष प्रायः शुभचिन्तकों की यह शिकायत मिलती रहती थी कि स्मारिका एक शोधग्रंथ मात्र बन कर रह गई है। समाज की अथवा सामान्य पाठक की रुचि का पसाला उस में प्रायः नहीं ही रहता । हितेच्छुअों की इच्छा का आदर करते हुए गतवर्ष हमने कुछ सामान्य परिवर्तन इसमें किया और उस परिवर्तन स्वरूप जो सामग्रो हमने प्रस्तुत की उसका हमारो प्राशा से भी अधिक स्वागत हुवा किन्तु एकाध विद्वान् उससे अप्रसन्न भी हुए। उनसे जब हमारे इन युक्तियुक्त लेखों का कोई उत्तर नहीं बन पड़ा तो उन्होंने हमारी भावनाओं पर ही आरोप लगा डाला कि ये सब लेख इसलिए लिखे गये कि उक्त निबंधों के लेखकों की राय नहीं ली गई होगी मानों राय लेने और सही बात निःसंकोच कहने में कोई अविनाभावी सम्बन्ध है। हम विश्वासपूर्वक कहते हैं कि कहीं भी और कभी भी हमारा वह ही मत होता जो हमने और हमने सहयोगी विद्वानों ने गतवर्ष की स्मारिका में अपने निबंधो द्वारा प्रकट किया है। जहां तक जैन एकता का सवाल है हम इसके सबसे बड़े हिमायती हैं और उसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारी यह स्मारिका है जिसमें हम बिना किसी भेदभाव के सबकी रचनाएं पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इस वर्ष भी हम ऐसा कर रहे हैं "और भविष्य में भी करते रहेंगे । किन्तु उस. एकता का एक स्पष्ट चित्र हमारे मस्तिष्क में है । बचपन में ईसाप की एक कहानी हमने पढ़ी थी । एक मिट्टी का और एक धातु का बर्तन दोनों एक नदी में साथ-साथ बह रहे थे । धातु के बर्तन ने मिट्टी के बर्तन को आवाज दी-मित्र ! तुम और मैं एक ही ओर चल रहे हैं । तुम्हारा हमारा गन्तव्य एक है, मार्ग एक है अतः प्रायो, मेरे पास, मार्ग में बातचीत, हंसी ठठ्ठा मनोरंजन करते चलेगे जिससे मार्ग सुगमता से कट जावेगा। मिट्टी के बर्तन ने कहा-दोस्त ! परामर्श तो तुम्हारा ठीक है किन्तु मुझे भय है कि कहीं इस प्रयत्न में तुम्हारी हमारी टक्कर न हो जाय ? तुम्हारा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा लेकिन मेरा तो अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा । हम चाहते हैं दोनों ही बर्तन धातु के हो जिससे एक की टक्कर दूसरे का कुछ बिगाड़ न सके, बिना किसी भय के एक दूसरे के नजदीक पा सकें और दूध-पानी की तरह जहां दूध को जलाया जाय वहां पानी की तरह दूसरा पक्षो उसकी रक्षा को आगे प्राय । स्वयं मिट जाय किन्तु दूसरे के अस्तित्व पर कोई प्रांच न आने दे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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