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________________ कुछ लकीरें काली सी आज से २५७४ वर्ष पूर्व आध्यात्मिक क्षितिज पर एक ऐसे प्रखर तेजोयुक्त ज्ञानसूर्य का उदय हुवा जिसके प्रकाश में अज्ञानांधकार में अपना पथ, अपना गन्तव्य भूले हुए मानव ने सही मार्ग के दर्शन किए। वह सूर्य मानव का मूक पथप्रदर्शक मात्र ही न था अपितु, लोगों में उस मार्ग के प्रति अनास्था अथवा हिचक न हो; इस हेतु उसने स्वयं ने दृढ़ता से उस मार्ग की ओर कदम बढ़ाए। उसने हिंसा की ज्वालाओं से संतप्त बिलबिलाते मानव को ही नहीं मूक-पशुओं, पक्षियों, कीट भृगों तक को आवाज देकर पुकारा-पायो इधर. इस संत्रास से छुटकारे का मार्ग यह है जिस पर मैं तुम्हें ले चल रहा हूं। निर्भय होकर मेरा अनुगमन करो। इस मार्ग में न हिंसा का ताप है, न परिग्रह का अभिशाप, न मायाचारियों और ठगों के घर हैं. न अन्य बुराइयों के कांकरपाथर बिछे हैं, न कोई अन्य विघ्न बाधाएं हैं । आयो, आओ, एक बार, केवल एक बार इधर पायो तो सहो, देखो कैसी शांति, कैसा प्रानन्द है ! बड़ा विचित्र था वह सूर्य ! जहां उसमें अंधकार को नष्ट करने की क्षमता थी वहां उसके तेज में, उसकी किरणों में जलाने की नहीं जिलाने की एक अद्भुत शक्ति थी, सामर्थ्य था! हजारों लोग उसके पीछे चल पड़े। मार्ग के अन्त पर पहुंचकर उन्होंने एक ऐसी शांति, एक ऐसे सुख का अनुभव किया जो निःसीम होने के साथ-साथ अक्षय और अव्याबांध भी था। जिसके नष्ट होने का, समाप्ति का कोई भय नहीं था। वे जो उस पथ नहीं चले या थोड़ी दूर चल कर लौट पड़े आज भी अपनी उस भूल का परिणाम भुगत रहें हैं, जन्म-मरण के. इस चक्कर में घूम रहे हैं, मार्ग भ्रष्ट हो दुःख भुगत रहे हैं। ऐसे संत्रस्त लोगों को सही मार्ग का भान हो, महावीर के उपदेशों को महत्ता का ज्ञान हो. उन्हें महावीर के बताए मार्ग पर चलने की सत्प्रेरणा प्राप्त हो इसी पवित्र भावना के वशीभूत हो श्रद्धेय स्व. पंडित चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ के सत्परापर्श से सन् १९६२ में राजस्थान जैन सभा, जयपुर ने महावीर जयन्ती के पावन पर्व पर प्रतिवर्ष एक स्मारिका प्रकाशन का निश्चय किया और उनके जोवनकाल की अन्तिम संध्या तक एक दो वर्षों को छोड़ कर वह स्मारिका प्रकाशित होती रही । उनके स्वर्ग प्रयाण के पश्चात् इस महान् कार्य का भार सभा ने हमारे कमजोर कंधों पर डाल दिया जिसके उठाने का हमने शक्ति और सामर्थ्य भर प्रयास किया। बिना किसी व्यवधान के प्रतिवर्ष हम स्मारिका पाठकों के हाथों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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