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________________ - वस्तु में अनेक धर्मों की स्वीकृति अनेकान्त है एवं उनका विवेचन स्याद्वाद पद्धति से किया जाता है । नय वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके उसका प्रतिपादन करता है अतः वस्तु के अन्य धर्म स्वतः ही उस समय गौण हो जाते हैं । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह अन्य धर्मों का खण्डन करता है अपितु, नय विशेष से किसी धर्मविशेष का मुख्य रूप से प्रतिपादन करते समय अन्य धर्मों का निषेध न होकर मौन स्वीकृति होता है। लेखक का यह मत कि नयवाद द्वारा व्यावहारिक जगत् में अपने पक्ष की स्थापना सबलरूपेण नहीं हो पाती ठीक नहीं है अपितु तथ्य इसके विपरीत हैं। जैन नयवाद अपने पक्ष का प्रस्तुतिकरण इस प्रकार करता है कि उसका खण्डन संभव ही नहीं है। इससे अधिक उसकी सफलता और सबलता क्या हो सकती है ? -प्र० सम्पादक आधुनिक युग को जैन दर्शन का प्रदेय नयवाद और अनेकान्तवाद .डा० कृपाशंकर व्यास संस्कृत विभाग, शासकीय महाविद्यालय शाजापुर (म० प्र०) अधुनातन युग भौतिक विकास का युग है। मूल्यांकन उपयोगितावाद की तुला पर प्रांकना आज मनुष्य भौतिकता के जिस चरम बिन्दु पर चाहता है । यह है वस्तुत: वैज्ञानिक दृष्टि का पहुँच गया है वहां उसकी समस्त धार्मिक मान्यतायें अतिरेक । अतः आज के बौद्धिक तथा ताकिक विचलित हो गयी हैं फिर भी मनुष्य की भौतिकता प्राणायाम के युग में व्यक्ति की समस्याओं के की ललक समाप्त नहीं हुई है । आज के इस संत्रास समाधान हेतु ऐसे धर्म एवं दर्शन की आवश्यकता युग में न केवल समाज के प्रत्येक घटक में घृणा, है जो कदाग्रह रहित दृष्टि से सभी विचारों को अविश्वास, मानसिक तनाव व अशांति के बीज समन्वित कर सत्यान्वेषण की प्रेरणा दे सके । इस प्रस्फुटित हो रहे हैं अपितु ये सभी गुण राष्ट्रों में भी दृष्टि से नयवाद तथा अनेकान्तवाद भौतिक विलास जन्म ले रहे हैं जिसका प्रतिफल है युद्धोन्माद। के युग में भी खरा उतरता है। - आज के व्यक्ति में प्रात्मग्लानि, व्यक्तिवादी दृष्टि- - जैन दर्शन के अनुसार पदार्थ अनन्त धर्मों का अखंड कोण, आर्थिक विषमता, विद्रोह-भावना किसी न पुंज है । उन अनन्त धर्मों में से वस्तु या पदार्थ के किसी रूप में जन्म ले रही है। इन सब का एक- एकांगी गुण तथा धर्मों का ही ज्ञान व्यक्ति अपनी मात्र कारण व्यक्ति का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। सीमित ज्ञान सीमा से कर पाता है। इस कारण वस्तु वैज्ञानिकता ने मनुष्य के वैचारिक धरातल को की स्वरूप प्रतीति में भी पर्याप्त भिन्नता दिखाई विस्तृत तो अवश्य किया है किन्तु भावनात्मक देती है। किन्तु इस भिन्नता का यह अर्थ कदापि घरातल को इतना अधिक संकुचित कर दिया है नहीं है कि वस्तु का एकांगी धर्म ही सत्य है तथा कि व्यक्ति जीवन से संबंधित प्रत्येक वस्तु का अन्य धर्म असत्य हैं । यही है जैन-दर्शन का महावीर जयन्ती स्मारिका 76 1-65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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