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________________ सूत्र में उसके साठ पर्यायवाची नाम दिये हैं, जिसमें . कैसे हो सकता है ? वहां सभी धर्म सम्प्रदायों के कुछ नाम हैं- शान्ति, समाधि, प्रेम, वैराग्य दया, प्रति समता की ही वृत्ति होती है। किन्तु इस समृद्धि कल्याण, मंगल, प्रमोद, रक्षा, अास्था, समता के भाव का जो अभ्यास जीवन के सामाजिक अभय आदि । इससे हमें उसकी व्यापकता का पता पक्ष में, दैनिक व्यवहार में, व्यवसाय में, नौकरी लग सकता है। हिंसा का छोड़ना यही मात्र पेशे में होना चाहिए था, वह अभी नहीं हो पाया अहिंसा नहीं है निषेधात्मक अहिंसा जीवन के सभी है। अहिंसा का हमने खूब गुणगान तो किया । पक्षों का स्पर्श नहीं करती वह आध्यात्मिक परन्तु बह अहिंसा मानवों के पारस्परिक व्यवहार उपलब्धि कही जा सकती है । निषेधात्मक अहिंसा में दया, क्षमा, सेवा, प्रेम, अशोषणवृत्ति आदि के मात्र बाह्य बनकर रह जाती है आध्यात्मिकता तो रूप में प्रकट न हो पाई है, वह केवल मानवेतर आन्तरिक होती है । हिंसा नहीं करना यह अहिंसा प्राणियों की रक्षा करने तक सीमित हो गई है। का शरीर हो सकता है अहिंसा की आत्मा नहीं। मानवों के पारस्परिक व्यवहार में, लेन-देन में, किसी को नहीं मारना यह अहिंसा के सम्बन्ध में सामाजिक मसलों में, धर्म सम्प्रदायों के आपसी मात्र स्थूल दृष्टि है। लेकिन यह मानना भ्रान्ति- व्यवहार में हमने उस अहिंसा सिद्धान्त को प्रायः पूर्ण होगा कि जैन विचारणा अहिंसा की इस स्थूल ताक में रख दिया है। किन्तु आज दुनिया में हिंसा एवं बहिर्मुख दृष्टि तक सीमित रही। जैन दर्शन और अहिंसा का जो मुकाबला है. उसमें हिंसकका केन्द्रीय तत्व अहिंसा शाब्दिक रूप में यद्यपि शक्तियां भी अहिंसा का नकाब पहन कर सामने नकारात्मक है लेकिन उसकी अनुमति नकारात्मक आती हैं। वे खुलकर प्रकट होने से डरती हैं । यह नहीं है। उसकी अनुमति सदैव ही विधायक रही इस बात का प्रमाण है कि अब दुनिया भर के है । सर्व प्रात्मभाव करुणा और मैत्री की विधायक लोगों की श्रद्धा हिंसा पर से मिट गई है और आज अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई का जन-मानस अहिंसा पर दृढ़ आस्था के साथ जीना चाहता है । यह शुभ लक्षण है। आज हमें वैयक्तिक स्तर पर ही नहीं सामाजिक स्तर पर जैन धर्म में अहिंसा का आधार समता है अहिंसा की साधना के द्वारा एक समता मूलक - जैन धर्म में अहिंसा का आधार समता है और समाज की रचना करनी होगी, तभी हम विश्व जहां समता हो, वहां किसी भी धर्म जाति आदि के में अभय निष्ठा जाग्रत कर मानवता को भय से प्रति राग-द्वेष, कलह संघर्ष, आदि का प्रादुर्भाव मुक्त कर सकेंगे। . __ 1. सत्वेषु मैत्रीं गुणीषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ भावं विपरीतवृतो सदा ममात्मा बिदधातु देव ।। 1-64 महावीर जयन्ती स्मारिका 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014032
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1976
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1976
Total Pages392
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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