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________________ 1-26 भक्त उतने ही अधिक चेतना से दूर हैं। यही की अपेक्षा होती है, पर सत्य बाहर की चीज नहीं कारण है कि महावीर के अनुयायी महावीर की है जो मांगनी पड़े। सत्य पराई वस्तु नहीं है जो भाषा से दूर हैं, महावीर की भक्ति से दूर है, और उधार लेनी पड़े। सत्य के लिए किसी पर प्रव. महावीर की भावना से दूर हैं। वे शब्द के संसार लम्वित होने की प्रावश्यकता नहीं है। सत्य के में ही सत्य के संधान का प्रयत्न करते हैं। वे लिए किसी बाह्य उपकरण की अपेक्षा भी नहीं है मन्तरंग में प्रवेश किए बिना ही अन्तःकरण को क्योंकि सत्य अपना होता है। उसमें स्व-भाव होता पाना चाहते हैं। वे जड़ता में जकड़े हुए ही चेतना है, पर-साव नहीं, अतः सत्य को न किसी से मांगना को अनुभूति चाहते हैं। है, न किसी से उधार लेना है, न किसी से सीखना चेतना के परिपावं में पुरुषार्थ को प्रधा- है और न किसी से पढ़ना है। उसे तो केवल नता होती है। पुरुषार्थ प्राणी के कर्तत्व खोजना है । खोजने के लिए हमें अन्तरंग की गहके लिए चुनौती होता है। उस चुनौती को र राई में उतरना होगा। स्वीकार करने वाला महावीर नहीं तो. वीर सत्य जब भी मिला है, अन्तरंग की गहराईयों अवश्य होगा। महावीर ने चेतना को प्रबुद्ध में मिला है। आम तौर से आदमी बाहर ही करने के लिए पुरुषार्थ का प्रावधान प्रस्तुत किया। खोजता रहता है और बाहर खोजते-खोजते वह पुरुषार्थ शब्द-प्रपंच से मुक्त होता है। पुरुषार्थी में स्वयं सम प्त हो जाता है, पर सत्य की प्राप्ति उसे बहिरंग भाव नहीं होता । पुरुषार्थी पर कभी जड़ता नहीं हो पाती । प्राप्ति हो भी कैसे ? जो चीज हावी नहीं होती। वह सत्य को बड़ी सहजता से अन्दर है, वह बाहर कैसे मिलेगी ? प्रतः जो पा लेता है क्योंकि सत्य किसी से मांगने से नहीं जितना गहराई में उतरेगा, वह उतना ही अधिक मिलता। सत्य किसी से उधार नहीं लिया जाता। सत्य को पा सकेगा और जो जितना अधिक सत्य सत्य किसी से सीखा नहीं जाता और सत्य किसी को पाएगा वह उतना ही अधिक महावीर को पा से पढ़कर जाना भी नहीं जाता। मांगने से बाहर सकेगा क्योंकि महावीर मोर सत्य एक ही प्रर्थ को की चीज ही मिल सकती है । उधार भी वही चीज अभिव्यक्त करने वाले दो पर्यायवाची शब्द है। मिलती है, जो अपनी नहीं होती। सीखने के लिए इसलिए सत्य को पाने का अर्थ महावीर को पाना भी किसी अन्य पर प्रवलम्बित होना पड़ता है और है और महावीर को पाने का अर्थ सत्य को पढ़कर जानने के लिए भी किसी बाह्य उपकरण पाना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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