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________________ सत्य बनाम महावीर : महावीर बनाम सत्य भगवान महावीर ने कहा--- 'सच्च लोयम्मि सारभूयं"-सत्य लोक में सारभूत है । इसलिए"सच्चमेव समभिजाणाहि"-तुम सत्य का आचरण करो। उक्त सूत्र सदर्भो में सत्य की केवल शब्दात्मा ही नहीं, अपितु भावात्मा परिलक्षित होती है। मानवीय स्वभाव की सबसे बड़ी दुर्बलता है कि वह शब्द के ऊपरी धरातल पर सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न करता है किन्तु उसकी भावना के सतह पर उसे पाने का प्रयत्न नहीं करता । शब्दात्मा में बहिरंगता होती है और भावात्मा में अंतरंगता होती है । सत्य बहिरंग नहीं होता । वह अंतरंग होता है, अतः उसकी उपलब्धि भी अंतरंग में प्रवेश से होगी। अंतरंग में प्रवेश । करने के लिए बहिरंग का विसर्जन करना होगा पौर अपने अन्दर उतरना होगा जो जितना गहरा अपने अन्दर उतरेगा, वह उतना ही अधिक प्राप्त करेगा। शब्द मोर सत्य-ये दो भिन्न-भिन्न कोण हैं। शब्द कभी सत्य नहीं होता और सत्य कभी शब्द नहीं होता। क्योंकि शब्द जड़ है और सत्य चेतना का धर्म है। चेतना का धर्म कभी जड़ नहीं होता पौर जड़ कभी चेतना का धर्म नहीं होता । जीवन की यथार्थता कभी जड़ता में प्रतिबिम्बित नहीं होती। वह चेतना के दर्पण में ही प्रतिविम्बित हो सकती है। महावीर ने हमें चेतना का दर्शन दिया। उन्होंने अन्तरंग में प्रवेश कर सत्य की उपलब्धि के लिए चेतना का प्रकाश दिया। महावीर का समग्र जीवन दर्शन चेतनामय था। उसमें जड़ता का कोई अस्तित्व नहीं था किन्तु इसे नियति का क्रूर व्यंग ही कहना चाहिए कि महावीर जितने अधिक चेतनामय थे, उनके अनुयायी और साध्वी श्री कस्तूरांजी (लाडनूं) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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