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________________ चट्ट केराचार्य और मूलाचार ⭑ पं० परमानन्द जैन शास्त्री दिल्ली Jain Education International आचार्य वट्टर ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपनी कोई गुरु परम्परा का ही उल्लेख किया है । मूलाचार की टीका 'माचारवृत्ति' के कर्ता वसुनन्दी प्राचार्य ने प्रपनी वृत्ति की उत्थानिका में मूलाचार का कर्ता वट्टकेर को सूचित किया है । इस नाम का कहीं से भी समर्थन नहीं होता । वट्टकेर या बेट्टकेरि शब्द प्राकृत संस्कृत भाषा के नहीं हैं। यह कनड़ी भाषा के हैं और किसी स्थान विशेष के वाचक हैं। इन कनड़ी भाषा के शब्दों से 'बट्टक- इरा गिरा' रूप से जो अर्थ निकाला गया है वह उचित प्रतीत नहीं होता, वह तभी संभव था, जब वे शब्द प्राकृत या संस्कृत के होते | पं० नाथूराम जी प्रेमी ने 'वट्टकेरि या वेट्टकेरि' नाम के ग्राम का उल्लेख किया है । वेट्ट केरि शब्द कनड़ी भाषा का है और जिसका प्रयोग स्थान विशेष के लिये हुआ है । इसी कारण डा० ए. एन. उपाध्ये उक्त प्रर्थ से सहमत नहीं हैं । अरताल जिला धारवाड़ (मैसूर) के शक सं. 1045 सन् 1123 ई० के कन्नड़ शिलालेख में जो चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल के समय का है उस समय वनवासी तथा पातंगुल प्रदेशों पर कदम्बकुलका महामण्डलेश्वर तैलपदेव शासन कर रहा था । मूल संघ कारपूरा के कनकचन्द्र के शिष्य बम्मि सेट्टि ने कोन्तल विभाग के प्रमुख नगर 'दयिण' में एक मन्दिर बनवाया । बमिसेट्टि वट्टकेर या वेट्टकेरि का निवासी था । यह गांव सन् 1 123 ई० में मौजूद था । कनड़ी में वेट्ट का अर्थ छोटा पर्वत और केरे शब्द का मथं तालाब है । मौर केरि का अर्थ गली या मुहल्ला होता है । इसका प्रयोग प्रायः मुहल्ले के अर्थ में किया जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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