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________________ 2-66 दक्षिण देश मे वट्टकेर या वेट्टकेरि नाम के गांव रहे की कुछ गाथाएं उपलब्ध होती है । वह केवल इस हैं, संभव है वर्तमान में भी हों। बात की द्योतक हैं कि वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्य के जान पड़ता है उक्त प्राचार्य का मूल नाम कुछ बाद हुए हैं। अतः वट्टकेर ने उनके ग्रन्थों से जो और ही रहा होगा । वे वट्टकेर या वेट्टकेरि गांव के कुछ लिया है। कथन या सन्दर्भ को पुष्ट करने के निवासी थे, इसीलिये उनकी प्रसिद्धि गंव के नाम लिये अन्य प्राचायों के ग्रन्थों की गाथाओं की तरह पर वट्टकेर हो गई। जिस तरह प्राचार्य पदूमनन्दि वे गाथाएं भी उद्धत की हैं। इतने मात्र से की प्रसिद्धि 'कौण्डकुण्ड' स्थान के कारण कोण्डकुन्द कुन्दकु दापायं मूलाचार के कर्ता नहीं कहे जा सकते या कुन्दकुन्द नाम से हुई, उसी तरह मूलाचार के कुन्दकुन्दाचार्य की अध्यात्म प्रधान कथनी का मूलाकर्ता वट्टकेर नाम से प्रसिद्धि होने के कारण वे चार के समयसार नामक अधिकार पर कोई प्रभाव वट्टकेर नाम से पुकारे जाने लगे। लगता है उस लक्षित नहीं होता । उसकी सरणी भिन्न ही है।, समय लोग उनके मूल नाम को भूल चुके होंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूलाचार एक अतएव वे वट्टकेर नाम से पहचाने जाने लगे दि० प्राचीन आधार ग्रन्थ है, जिसका रचना काल जैन श्रमण वैसे ही नामादिक ' की ख्याति से दूर संभवतः विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी है, क्योंकि रहते थे ! चूकि वे निस्पृही होते हैं । अतः उन्हें मूलाचार का उल्लेख पांचवी शताब्दी के प्राचार्य नाम प्रसार की चिन्ता नहीं होती ।। मूल नाम के यतिवृषभ ने अपनी तिलोयपण्णत्ती की 8-532 विस्मृत हो जाने से उनकी गुरु परम्परा ज्ञात नहीं नंबर की 'मूलाया, इरिया' गाथा मूलाचार का हो सकती। अतएव ग्राम के नाम से ही जनसा उ हे स्पष्ट उल्लेख किया है। इससे उसकी प्राचीनता पहिचानती होगी। इसीलिये वसुनन्दी प्राचार्य ने में कोई सन्देह नहीं रहता। इतना ही नहीं किन्तु भी उनका नाम चट्टकेर सूचित किया है । . . . विक्रम की नौवीं शताब्दी उसकी प्राचारांग रूप से प्राचार्य वट्टकेर मूल निग्रन्थ परम्परा के प्रसिद्धि रही है। धवला टीका के कर्ता प्राचार्य महान विद्वान थे । भगवान महावीर के समय और वीरसेन ने 'तह मायारंगे विवुत्तं' वाक्य के साथ उसके बाद जैन श्रमण निग्रंथ नाम से ही पहचाने जा गाथा उद्धृत की है वह वतमान मूलाचार में जाते थे। यही निग्रन्थ श्रमण परम्परा बाद को उपलब्ध होती है। इसस स्पष्ट है कि विक्रम की मूलसंघ में परिणत हो गई । इसी से वट्टकेर मूल ५वीं शताब्दी मे उस की प्राचारांग रूप से प्रसिद्धि परम्परा के प्राचार्य माने जाते हैं । संभवतः तीसरी रहा है। और 12वीं 13वीं शताब्दी में रचित चौथी शताब्दी मे यह परम्परा लोक में प्रसिद्ध हो ग्रन्थों में तो उसका अनुकरण स्पष्ट हा है। गई थी, क्योंकि उस समय के लेखों में मूलसघ का अब रही आवश्यक नियुक्ति मोर पिण्डनियुक्ति नाम उपलब्ध होता है।. को बात, सो यह सुनिश्चित है कि वतमान 'मूलाचार का गंभीर अध्ययन करने और नियुक्तियों का निर्माण विक्रम की छठी शताब्दी कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों से तुलना करने से भी में हुआ है । उनके कर्ता द्वितीय भद्रबाहु हैं, जो भूल च र कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मालूम नहीं होती. वराहमिहर के भाई थे । इससे स्पष्ट है कि मूलाऔर नमूनापार को कथन शैली ही कुन्दकुन्दाचार्य चार उन नियुक्तियों से पूर्व को रचना है। प्रता की कथन 'शैली से मेल खाती है। विचारणा भी. उनस आदान-प्रदान को बात ठीक नहीं है। दूसरे उन जैसी महीं है। ऐसी स्थिति में कुन्दकुन्दाचार्य · भगवान महावीर की मूलनिर्ग्रन्थ परम्परा जब दो वो मूलाचार : काकर्ता नहीं ठहराया जा सकता। भागों में विभक्त हुई, उस समय समागत साहित्य यह सही है कि मूलाचार में कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों दोनों परम्परा के साधुषों को कंठस्थ था । प्रतः , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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