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________________ खण्ड किए षट् शिखर में, तीन खण्ड प्रत्यक्ष । प्रायः धारणा शाह का, सिद्ध हो गया लक्ष ।।3।। दक्षिण दिशि का काम जो, छोड़ गये प्रवशिष्ट । करवाया शाह रत्न ने, उसका कार्य विशिष्ट ।।32।। पश्चिम उत्तर पूर्व में, श्री मरुदेवा मात । बैठी गज प्रारूढ़ हो, दोनों जोड़े हाथ ।। 3310 दक्षिण दिशि में रत्न शा, खडे युग्म कर जोड़। तन मन धन से मिल किया, काम बड़ा बेजोड़ 13411 दर्शक गण की निकलती, मुख से यह आवाज । कैसे बनवाया इसे, कैसे जोड़ा साज ।।351 द्रविण कुबेरों ने यहीं, कितना खर्चा दव्य । बिना द्रव्य कैसे बने, ऐसा मन्दिर भव्य 11361 दो हजार नव में हुआ, इसका जीर्णोद्धार । सिर्फ सिंहासन के लगे, रुपये सितर. हजार 11371 यदि उसी अनुपात से, करें खर्च अनुमान । क्रोड़ों के भी खर्च में, होना नहिं आसान ।।3811 प्राज सभी साधन सुलभ स्थितियां सब स्वाधीन । फिर भी बनना कठिन है, यो मन्दिर संगीन ॥391 देव शक्ति से है बना, अनुश्रुति है विख्यात । वस्तु स्थिति की तथ्यता, जान रहे जगनाथ 11.00 धरणाशा और दीपजी, पूजारी मतिमान । तीनों की ही चौदहवीं, है जीवित संतान 14111 भव्य कलाए देखकर, अचरज हुमा महान् । सस्मित विस्मित आ गये, हम सब अपने स्थान 14211 प्रतिभा के पूज्यत्व में, यद्यपि भिन्न विचार । तदपि कला की कुशलता, है सबको स्वीकार ॥431 कर विहार' वहां से लिया, मालागड्ढ विश्राम। ... घाटे चढ़कर मोद से, प्राये मग्या ग्राम ।।4411 सन्त 'छत्र' ने मुदित मन, मनहर रचा प्रबन्ध । सर्व दर्शि सर्वज्ञ जिन, जय जय आदि जिनन्द 145॥ संकलनकर्ता जुगल किशोर भोजक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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