SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ J-98 पश्चात् स्वाभाविक है प्रघंकार के पश्चात प्रकाश का माना । मोक्ष उसी प्रकाश, प्रनन्त ज्ञान की स्थिति है । इस प्रकार महावीर का जीवन गर्भ से मोक्ष तक लघु साधनाओं से परिमार्जित जीवन की विशालत', विराटता का दर्शन है जो प्रणुव्रतों से महाव्रतो की पोर जाता हुआ श्रम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । वह मरणु क्या है ? तुम्ही म हो भौर तुम्ही एक से दो होते हुए ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का निर्माण करते हो । अणु की साधना तुम्हारी साधना है। महावीर ने कहा है, "आचरण से प्रारंभ करो किन्तु याद रखना, ब्रह्माण्ड के स्वरूप में तुम हो इसलिये ब्रह्माण्ड के चित्र को अस्पष्ट मत कर देना, विकृत न कर देना । इस साधना के लिये महावीर ने धर्म को प्रयोगात्मक रूप से स्वीकार किया है। उन्होंने कहा परिग्रह का त्याग करो । यह नहीं कहा कि सब छोड़कर भाग जाम्रो। तुम भाग कर जाओगे कहाँ ? जहाँ भी जानोगे पराभव में अपने को खड़ा पाओगे। इसलिये एकदम मत भागो, उतना स्वीकारी जितना आवश्यक है। अधिक बोझ बन जायेगा, संभलेगा नहीं । दूसरों को भी दे दो, बोझ हल्का हो जायेगा रास्ता सरलता सहजता से कट जायेगा । अन्यथा जिनके पास नहीं है, तुम्से छुड़ाने का प्रयत्न करेंगे, जीवन भर कलह बना रहेगा पूरा रास्ता दुखदायी हो जायेगा । मिथ्यात्व आडंबर है, चेतना पर प्रावरण, इसका Jain Education International त्याग करो, घृरणा मिट जायेगी, लघु विराट में. बदल जायेगा । धौर इसे 'प्रेक्टीकल' रूप में महावीर ने शूद्र और प्रत्यजों को गले लगा कर प्रस्तुत किया | उन्होंने सबको अपने सब में सम्मिलित किया बिना भेद भाव के, उन्हें मुमुक्षु बनाया और विराट के लिये तैयार कर दिया । महावीर को सुनकर सम्राटों ने प्रव्रज्या धारण की । अभिमानी मस्तक नत हो गये और यहां तुम हो महावीर की 2500वें निर्वाणोत्सव के लिये उद्यत किन्तु समाज में समाज की स्थिति निर्मित करने में असमर्थ । समाज को जब तुम प्यार नहीं दे सकते, मानव के प्रति तुम्हारा हृदय स्नेह सिक्त नहीं तो सारे प्रायोजन व्यर्थ हैं । महावीर के प्रग्रही जीवन को परिग्रह से शोभायमान करना नितान्त अविचारपूर्ण होगा। यह बड़ी विरीत धारणा है। कर दो इस व्यय को उस प्रोर स्थानान्तरित जहाँ से कह की प्राबाज भा रही है, जहाँ प्रभाव । यदि यह प्रेम का सागर उमड़ा है तो काट दो उस स गर से नहरें और उन्मुख कर दो उन्हें उस ओर जहाँ की धरती प्यासा है, सूखी जमीन सिंचित हो जायेगी, हरी भरी हो जायेंगी, तृप्त हो जायेंगी। तुम भी तृप्त हो जावोगे । चारों ओर की जीवन की महक से तुम खिल उठोगे । यही तो मोक्ष का आनन्द है । इसलिये अर्थ के प्रदर्शन से महावीर के दर्शन की उच्चता का प्रदर्शन केवल तब हो सकेगा जब वह तुम्हारी मानसिक विशालता का परिचायक होगा अन्यथा समाज के लिए म्रात्म हन्ता । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy