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________________ 1-97 देश से घृणा, वैमनस्यता, अहंकार, द्वेष और लोभ और मोक्ष निर्वाण के तत्काल पश्चात् की को विसर्जन करने में समर्थ होता है। स्थिति जो केवल अनन्त प्रकाश है। भगवान ज्ञान कल्याणक का अर्थ है केवल ज्ञान का रह महावीर के 2500वें निर्वाणोत्सव पर निर्वाण पर जाना, समस्त प्रज्ञान का लोप । यही ज्ञान चर्चा करना मावश्यक है। प्रध्यात्म ज्ञान और विज्ञान है। इस ज्ञान में दंत कवि ब्राउनिंग ने कहा है :का भेद मिट जाता है। समग्र जीवन केवल एक "The Journey is done and the चेतन तत्व में प्रवहमान हो जाता है। कहीं किसी summit attained and the barieers fall." मी छोर पर वेदना तत्काल सर्वस्थलों पर सर्व- मैंने यात्रा पर्ण कर ली. चरम अवस्था प्राप्त ग्रहीत हो जाती है। यही महावीर की निश्चयनय है, सारे बन्धन गिर चुके हैं । ब्राउनिंग की ये की दृष्टि है। उनके ज्ञान की अविच्छन्नधारा जो पंक्तियाँ निर्वाण की स्थिति है जिसके तत्काल उनसे प्रवाहित होकर आज भी प्रत्येक जीवन को पश्चात् चरम उपलब्धि मोक्ष की ही स्थिति है । पौषित कर रही है । महावीर का दर्शन यहाँ ब्राउनिंग ने यहाँ उस मृत्यु की चर्चा नहीं की प्राकृतिक साम्यवाद का दर्शन है । जय प्रकृति जिसके साथ पुनर्जन्म की संभावनायें जुड़ी हैं । समान रूप से जल, वायु, प्रकाश. आकाश एवं भूमि क्योंकि वह आगे कहता है :समस्त जीवन को निर्विकार रूप से प्रदान करती I would hate that death bandaged है तो मानव उससे एकाकार होकर सबको अपना my eyes and forbore and bade me स्नेह क्यों न समान रूप से बाँटे । महावीर की ___ creep past. यही भावना अहिंसा है, जहाँ दो नहीं रह जात, मैं उस मृत्यु से घणा करूगा जो मुझे अंधसबके सुख-दुख अपने हो जाते हैं; सहअस्तित्व कार की ओर ले जायेगी केवल वर्तमान से मुक्त और सहजीवन ही जीवन की महत् दृष्टि बन कर रात की पोर वापिस कर देगी। जाती है। जिसमें निगोद और तिर्यंच से लेकर दार्शनिक गेटे मृत्यु के समय कह रहे हैं मानव योनियों तक समस्त अपना निरंतर विकास करने में समर्थ होते है। यह संवेदना का अनुभव "अधिक प्रकाश, अधिक प्रकाश ।" देशबन्धु चितरंहै । अरविन्द ने इसी को सौंदर्य का दर्शन कहा है। जनदास ने मृत्यु के समय एक कविता लिखी, महावीर के संमवशरण की रचना का विधान भी "अब मेरी आँखों के सामने अधेरा छा रहा है जिसके पार सिर पर मोर मुकुट धारण किये यही है । सारा जगत बैठा है उन्हें सुनने के लिए। तिथंच बैठे हैं, कीट पंतग बैठे है, पशुपक्षी बैठे हैं, हाथों में बासुरी लिये श्यामसुन्दर गोपाल की गंधर्व किन्नर के राक्षस र माय मूति दिखाई दे रही है, मेरा अंधकार का साम्राज्य और देवता बैठे हैं। एक दूसरे के विरोधी बैठे हैं। . तिरोहित हो गया है केवल दिव्य प्रकाश से मेरा निर्वाणोन्मुख दीपक प्रज्वलित हो रहा है।" पर विरोध नहीं। महावीर कहते हैं सब सुन लेते । हैं सब समझ लेते हैं। यह हृदय की भाषा हृदय संत तुकाराम कहते हैं, "अपनी आँखो ही के लिये है। यह स्नेह की भाषा है। यह आत्मी- मैंने तो, अपनी मृत्यु देख ली है, अनुपम था मेरा यता का उद्बोधन है, एक गंध है, परिमल है, यह प्रकाश ।" सहज स्वीकार्य । वर्तमान और भविष्य के कल्याण भगवान बुद्ध कहते हैं, "निर्वाण, दीपक का की यह चेतना है, गहरी अभीप्सा है स्नेह को बुझ जाना । क्षुद्र लोभ, स्वार्थ, वासना, प्राशा, प्रक्षेपित करने की नये रूपान्तरण के लिये । तृष्णा का महाभिनिष्क्रमण है यह ।" किन्तु इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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