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________________ जैन धर्म में श्रावक की महत्ता 'श्रावक' शब्द सामान्य गृहस्थ शब्द से ऊँचा, अर्थ गम्भीर और भावपूर्ण है। धावक शब्द का अर्थ शिष्य या सुननेवाला भी है। लेकिन जैन पोर बौद्ध परम्परा के अनुसार श्रावक वह है जो सद्धर्म पर श्रद्धा रखता है, गृहस्थोचित व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, पाप-कियानों से दूर रहता है और अपनी सीमा में मात्म-कल्याण के पथ पर चलते हुए श्रमणों या भिक्षुगें की उपासना करता है उनके प्रात्मकल्याण में सहायक होता है; विवेकी और क्रियावान होता है। कविवर बनारसीदास ने श्रावक को जिनेन्द्र का लघुनन्दन कहकर उसे गौरव के शिखर पर चढ़ा दिया है । ऐमा सम्यग्दृष्टि सम्पन्न श्रावक गृहस्थ होते हुए भी गृहस्थो में लिप्त नहीं होता---गेही पं गृह में न रच ज्यों जल तें भिन्न कमल है । श्रावक अर्थात् सम्यक् श्रवण करने वाला, प्राणों से श्रवण करने वाला। __ कल-प्रवाह के थपेड़े खाते-खाते आज श्रावक शब्द का अर्थ-गौरव भले ही खो गया हो, लेकिन तब भी यह शुचिभूत, शालीन, पवित्र, सरस, प्रतीतिपूर्ण, निर्भय, निरामय, स्फटिकवत् निर्मल. स्वच्छ जीवन का कीर्तिपुज है। तीर्थंकरों के धर्मसंघ का संवाहक श्रावक ही होता है, वही धर्म-रथ की धुरी होता है। परम श्रावकत्व की पराकाष्ठा तक पहुंचे बिना मुनिधर्म के तपोमार्ग पर पारोहण संभव ही नहीं है। मुनि की प्रतिष्ठा श्रावक से ही जैन पागम नाम से प्रसिद्ध प्राचीनतम प्राकृत वाड्मय में श्रमण या अनगार-धर्म का ही वर्णन विशेष रूप से मिलता है । बड़े-बड़े सम्राटों तथा श्रेष्ठि-पुत्रों ने ही नहीं प्रतिमुक्तक जैसे छोटे-छोटे श्री जमनालाल जैन वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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