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________________ 1-96 एक अनन्त प्रकाश है। इसलिये स्याद्वाद स्थिति है, विवेक प्रवतरित हो चूकी है समृद्धि अवतरित हो की अनुरूपता की स्वीकृति है। चुकी है। शोभा होगी सबकी सम्पन्नता, सबकी समा अरुणोदय, स्वर्ण विहान, पक्षियों का कलरव, नता, सब चेहरों पर माल्हाद । तुम्हारा कर्म लज्जामिर का कलनाद, सुगंधित समीरण, चारों और स्पद न बन जाये, कोई दुखी न रह जाये, कहीं कोई जीवन, हरित उद्यान. विकसित वन कसम, उत्त ग विकलांग न हो जाये तुम्हारे कारण ऐसा प्राचरण मौन शिखर, जिस दिन यह सब तुम हो; खेतों से निर्मित हो यही शील है। तुम विचलित न हो अपने जूझता कृषक, व्यवसाय में डूबा वरिणक, मशीनो कर्तव्य पथ से यही घृति है । कार्य विवेक जन्य हो पर यंत्र चालित श्रमिक, युद्ध भूमि में सत्य के लिये यशस्वी हों, यही तो है 'बुद्धि' और 'श्री' का प्रागमन समर्पित होता सैनिक, असहाय, दरिद्र भिखारी गर्भ कल्याणक की प्रतिष्ठा का अर्थ है रत्नगर्भा जिस दिन यह सब तुम हो, उस दिन तुम्हारा वसुन्धरा की अन्तः शक्ति को प्रतिष्ठित करना । वसुधा 'अपना कोई कर्म नहीं होगा, कर्मो की विर्जरा के मनन्त्र गर्म में छिपे स्वर्णभण्डारों को, मेदनी होगी। शेष रह जायगा केवल एक मानन्द, यही की अपार उर्वराशक्ति को स्रोतो के रूप में मानव मोक्ष है। तो तुम यदि महावीर के दर्शन करने कल्याण के लिये उपलब्ध कर देना। माये हो तो तुम्हें उन्हें जानना होगा, उनके आनन्द जन्म लेते हैं महावीर तो सब कुछ उदित हो के मार्ग को पहचानना होगा। और उनके स्थान ___ जाता है । सारे मलिन प्रावरणों को तोड़कर एक पर अब तुम उतरो गर्भ में, तुम जन्म लो, तप करो, दीप्ति चारों ओर फैल जाती है । अंधकार का ज्ञान प्राप्त करो मोक्ष मिल जायेगा । तुम्हे जन- साम्राज्य विछिन्न हो जाता है, ज्ञान सूर्य का अभ्युधर्म की लेबोरेटरी में प्रयोग करना है अन्यथा दय हो जाता है । ‘महावीर का जन्म कल्याणक ध्यर्थ होगी तुम्हारी उपस्थिति, मृगमरी चिका होगा देवता मनाते थे, क्या तात्पर्य है इसका? इसका तुम्हारा भठकना, अबौद्धिक होगी तुम्हारी प्रभीप्सा। पर्थ केवल इतना है कि जिसमें देवत्व है वही अधितो तुम्हे करना होगा स्वयं का रूपान्तरण । कारी महावीरके जन्म कल्याणक मनाने का । तुम्हारा - महावीर गर्भ में आते हैं, पाने के पूर्व से स्वर्ग देवत्व प्रकट होगा जब तुम्हारे कर्मों की निष्पत्ति मौर रत्नों की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। स्वर्ग कारण बनेगी, संस्कारित, शिक्षित, आध्यात्मिक पौर रत्न प्राकाश से कंकड़ पत्थर नहीं बरसते थे। एवं अति प्राध्यात्मिक, वैज्ञानिक मस्तिष्कों को जन्म यह प्रतीक है इस बात का कि समस्त अस्तित्व देने की जो मानव विकास के लिये दृढ़ संकल्पित को अपने में लिये हुए पूरणं आनन्दित आत्मा जब हो सकें, अग्रसर हो सके एक प्रकाश के साम्राज्य प्रवतीर्ण हो रही है तो सारा प्रफुल्लित वातावरण को स्थापित करने में। उसके प्रासपास होता है। मेदनी का अंग अंग सूर्य सितिज पर उदित हुआ; सारा आकाश पुलकायमान है उसे धारण कर । बही तो समृद्धि है उसे पार करने के लिये । उसे सतत गतिशील है मुमुक्षु प्रात्मा की। और यही कारण है कि होना है । महावीर जीवन की फर्म भूमि पर श्रम महावीर के मर्भावसरण काल में श्री, ही, धृति, की तपस्या की स्थापना करते हैं। आलस्य का 'कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी भगवान के अवतरण के निवारण धम है । श्रम उत्पाद है सत्य का यथार्थ पूर्व से विद्यमान हो जाती हैं। यह प्रतीक है इस का जीवनदायिनी शक्ति का और उसका पोषण बात का कि तीर्थकर ने अपने आने के कारण पूर्व भी । और श्रम की अग्नि में तपकर कंचन कुन्देन 'प्रकट कर दिये हैं । शोभा अवतरित हो चुकी है, बन जाता है । ज्ञान का प्रादुर्भाव और विवेक जन्य शील अवतरित हो चुका है, धैर्य अवतरित हो चुका कार्य मानसिक श्रम है जो जड़ता का विनाश कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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