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________________ भगवान महावीर के जीवन दर्शन का वैज्ञानिक विश्लेषण श्री राजभर जैन 'परमहंस' Jain Education International दमोह - मानव की कल्पना हो ईश्वर है। जिस दिन वह इस कल्पना को साकार कर लेता है, स्वयं विभु हो जाता है । जैन दर्शन ने प्रत्येक प्रात्मा को विभु होने का अधिकार दिया है । इसलिये ईश्वर को देखा नहीं जा सकता, ईश्वर हुम्रा जा सकता है । तथागत से उनके परम शिष्य श्रानन्द ने प्रश्न किया, "प्रभो, आपका निर्वारण समीप है, मैं प्रापके सान्निध्य में जीवन पर्यंत रहा पर यह न जान सका कि ईश्वर है इस पर श्राप का मत क्या है ? आपके पश्चात मेरा यह प्रश्न, प्रश्न ही रह जायगा ।" बुद्ध ने उत्तर नहीं दिया मौन हो गये । उत्तर दिया जा चुका था । यही प्रश्न यदि कोई महावीर से करता तो शायद महावीर भी मौन हो जाते । शायद तुम सोचोगे महावीर नास्तिक हैं । जिन्होंने भी ईश्वर को जाना है उनसे तुम यदि पूछोगे कि क्या उन्होन ईश्वर को देखा है तो उन्हें सदव भोन पालोगे । नास्तिक का अथ हैं जो प्रस्तित्व को अस्वीकार करे । तुम हो फिर प्रस्वीकृति कहा ? और जब तुम हो, तो तुम्हारा यह साम्राज्य तुम्हारे साथ है, पर जब तुममें मोर तुम्हारे साम्राज्य में द्वत जन्म ले लेगा, जब दोनों एकरूपता के प्रस्तित्व से विलग हो जावेंगे, जब दोनों के क्रियाकलापों में विभिन्नता का जन्म हो जावेगा, भेद प्राचीर एक दूसरे को देखने से वंचित कर देगी, संसार खड़ा हो जावेगा, ईश्वर मदृष्ट हो जावेगा। इसलिये महावीर के दर्शन में प्रस्वीकृति में स्वीकृति है । मोक्ष संसार का न होना है, पर संसार है क्योंकि मैं हूं और मैं नहीं हूं न यह संसार है, यही है महावीर का स्याद्वाद तो स्यां द्वाद जो है उसका विज्ञान है । इम हैं, कर्म हैं । कर्म का प्रकर्मक हो जाना, मोक्ष है, निर्वाण है, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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