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________________ 1-84 मूर्छा ही ममत्व है, पास में यदि वस्तुएं न भी भोजन किए जाते हैं, तो दूसरी पोर लोग झूठी हो, किन्तु उनके प्रति ममत्व है तो वह परिग्रह पत्तले चांट कर अपना पेट भरते हैं। करोड़पति, ही कहलायेगा। जब करोड़पति होने पर यदि वह अरस्पति होने की कोशिश करता है तो भी उसे धन-सम्पत्ति के प्रति ममत्व रहित है, तो निश्चय संतोष नहीं होता और दूसरी ओर गरीब को पेट ही वह अपरिग्रही की कोटि में आ सकेगा। इस भर भोजन भी नहीं मिल पाता । एक ओर अमीर प्रसंग म ऋषभ पुत्र चक्रवर्ती भरत का उदाहरण की पट्टालिकाए मुस्कुराती रहती हैं तो दूसरी दृष्टव्य है। कोट्याधीश होने पर भी राज्य के अोर निर्धनों को झोपड़ा भी नसीब नहीं होता। प्रति उनकी अनासक्ति जल में भिन्न कमल के मिल-मालिक और मजदूरों के बीच दिन-प्रतिदिन समान थी। यही कारण है कि उन्हें उसी भव में अमीर-गरीब की ख ई बढ़ती जा रही है। इन शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो गई थी। सभी विषमताओं का मूल कारण हमारी संचय ___ अपरिग्रह में ऐसी शक्ति विद्यमान है कि उसके मोवत्ति ही है। इसी मनोवत्ति के कारण देश बिना कोई भी प्राध्यामिक अनुष्ठान सम्भव नहीं एवं समाज का विकास अवरुद्ध हो जाता है। है। अहिंसा के भवन को आधार-शिला अपरिग्रह जिन्हें पैसों की आवश्यकता कम है, वहां तो वह ही है। बिना अपरिग्रह के अहिंसा का कोई अर्थ तहखानों में बन्द पड़ा रहता है, जिन्हें आवश्यकता नहीं। अपरिग्रह के बिना सत्य निश्चय ही असत्य होती है उन्हें वह मिल नहीं पाता। कभी-कभी के भय.बने बादलों से पाच्छास्ति हो जायेगा। यही छोटी सो चिनगारी समस्त देश को भस्म कर परिग्रह का राक्षस सन्तोष का सर्वस्व ग्रहण कर देती है। . . लेता है। परिग्रह के भीषण प्रहरों से बह्मचय परिग्रह संसार का सबसे बड़ा अभिशाप है । स्थिर नहीं रह सकता। अपरिग्रह को अपनाए परिग्रह अर्थात संग्रह-वृति का दास होकर व्यक्ति बिना जीवन शान्त और सरस नहीं बन सकता। धन का गुलाम बन जाता है। उसमें अनेक दुष्प्रयही कारण है कि भगवान महावीर ने अपरिग्रह वृत्तियां-तृष्णा, लोभ प्रादि जागृत हो जाती हैं. को अपनाने के लिए अत्यधिक बल दिया था। जो कि व्यक्ति को स्व थप्रिय बना देती हैं। परिग्रह की भावना अत्यन्त दुखदायी है । वह स्वार्थान्धता व्यक्तियों में कूद कूट कर भर जाती जीवन का सर्वतोमुखी पतन कर डालती है। है और वह पैसे के पीछे अपना-पराया सब कुछ इससे मनुष्य में अनैतिकता एवं अनाचार को भूल जाता है। उसका एकमात्र ध्येय पैसे की भावना अकुरित, पुभित एवं पल्लवित होती है। उपलब्धि ही हो जाता है। परिग्रह से ही भ्रष्टासमाजशास्त्र-वेत्तानों के अनुसार परिग्रह समाज में चार को बढ़ावा मिलता है। प्रकृति ने जो शुद्ध, शोषक और शोषण-वृत्ति का जनक है। अमुक सात्वित्त वस्तुर विश्व को अति की हैं, उन्हें भी व्यक्ति करोड़पति है. अमुक कंगाल, यही सामा- धूर्त व्यापारी मिलावट के द्वारा दूषित बना देते जिक विषमता है, जो परिग्रह की देन है । इसी हैं। डाक्टर, जिसे समाज-सेवा की उपाधि से से वर्ग भेद होता है और यही प्रशान्ति की जड़ है। विभूषित किया जाता है, वह भी धन के लोभ में धनवान के घर में धन से तिजोरियां भरी रहती रोगियों की उचित देखभाल नहीं करता। वह हैं और अनेक वस्तुएं मारी-मारी फिरती हैं ममीर रोगयों को ही प्रश्रय देता है, गरीब तो जबकि उन्हीं वस्तुओं के अभाव में करोड़ों लोग वहां से भी झिड़कियां खाकर ही वापस लौट पाते दर-दर भटकते हैं, भूखों मरते हैं और वस्त्रहीन हैं। वकील और न्याय धीश भी तृष्णा के वशीभूत होकर जाड़ों में ठिठुरते हैं। एक भोर स्वादिष्ट होकर अपने कर्तव्य रो च्युत होकर सच्चे को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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