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________________ एक स्थायी समाधान साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी भगवान महावीर ने संसार को जो तत्व-दर्शन एक व्यक्ति से पूछा गया-तुम कोई सामजिक दिया वह असाधारण है । अहिंसा, अपरिग्रह और काम करना चाहते हो क्या ? उसने उत्तर दियाअनेकान्त इस तत्वत्रयी में सारे हितों की संभावना गरीबी की स्थिति में मैं कुछ नहीं कर सकता । निहित है। यदि मेरे पास पच्चास हजार रुपये हो जाए तो मैं समाज सेवा का व्रत ले सकता हूं। उसका संकल्प माज लोगों के पाकर्षण का सबसे बड़ा केन्द्र फला और अगले साल ही पच्चास हजार रुपये उसे है परिग्रह । लोग कल्पना करते हैं, शान्ति-प्राप्ति प्राप्त हो गए। अब उसके सामने वही प्रश्न प्राया का माध्यम कोई है तो वह धन वैभव ही है। तो वह बोला-इस युग में पच्चास हजार की कीमत इसलिए परिग्रह के सीमाकरण की बात से लोग। ही क्या है ? लखपति बन जाऊं तो काम करू । सहमत नहीं हो रहे हैं । सत्य यह है कि परिग्रह की लखपति बनने के बाद वह कोट्याधीश बनने की सीमा किए बिना सुख नहीं मिल सकता। कल्पना करता है । इस प्रकार सोचने वाला व्यक्ति मनुष्य की आवश्यकताएं सीमित है, पर कर्मक्षेत्र में नहीं उतर सकता। माकांक्षामों का अकल्पित विस्तार हो रहा है। - संसार का हर व्यक्ति आकांक्षामो से प्राक्रान्त पावश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है, पर है। भगवान ने सुख का मार्ग बताते हुए कहा है माकांक्षामो का गर्त नहीं भर सकता। मनुष्य की माकांक्षाएं दुःख का स्रोत हैं। दुख से छुटकारा सबसे बड़ी आवश्यकता है- भोजन, वस्त्र, चिकित्सा पाना है तो भाकांक्षाओं पर नियन्त्रण करो। और शिक्षा। राष्ट्र के हर नागरिक के लिए इनकी 'इच्छा-परिमाण-व्रत' इसी तथ्य कः प्रतीक है। व्यवस्था आवश्यक है, पर इनकी पूर्ति होने की अपेक्षावश व्यक्ति करोड़ रुपया भी रख सकता है, स्थिति में जब वह अपनी आकांक्षा को बढ़ा लेता पर अनावश्यक संग्रह प्रौचित्य का लंघन है । एक है, तब समस्या पैदा हो जाती है। व्यक्ति करोड़ों की सामग्री होने पर भी संयम से रहता है और एक साधारण व्यक्ति भी दिन-रात संसारी व्यक्ति अपरिग्रही नहीं बन सकता, भोगों में प्राशक्त रहता है। यह मानसिक संयम किन्तु परिग्रह अंकुश तो लगा सकता है। भगवान की भिन्नता है। ने कहा है-“इच्छाहु प्रागास-समा पंणतया" दो भाई थे। एक सरकारी नौकर था और इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं। संकल्पशक्ति दूसरा अपना काम करता था। सरकारी नौकरी के द्वारा इनका समीकरण किया जा सकता है। करने वाले ने अपने दूसरे भाई को परामर्श दिया संकल्प-शक्ति के प्रभाव में जितनी आवश्यकताएं 'तुम भी मेरी तरह नौकरी कर लो भौर आराम से. पूरी होती हैं, आकांक्षाए उतनी ही बढ़ जाती हैं। रहो । क्यों निरर्थक इतना श्रम कर रहे हो ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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