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________________ महावीर की खिदमत साध्वीश्री श्रानन्दश्रीजी श्रमण संस्कृति के सूत्रधार भगवान महावीर आज से करीब पच्चीस सौ वर्ष पूर्व इस धरती पर श्राये थे। उनकी पच्चीसवीं निर्वारण शताब्दी का यह अन्तिम वर्ष है । इस अवसर पर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समारोह मनाने के अनेक Jain Education International उपक्रम चल रहे हैं । यह वास्तव में उत्साहवर्धक है, लेकिन महावीर की सच्ची उपासना तभी होगी जब कि हम उनके द्वारा प्रदत्त सन्देशों को जीवन में क्रियान्वित कर पायेंगे । हमारे लिए यही सर्वोत्तम श्रेय का मार्ग होगा। मुझे इस सन्दर्भ में बौद्ध इतिहास की एक घटना याद आ रही है। कहते हैं कि प्राचार्य बोधिधर्म जत्र चीन गये, तो वहाँ का सम्राट उनके दर्शनार्थ पहुंचा और प्रणाम करके निवेदन किया - प्रभो ! मैंने अनेक बुद्ध मंदिर, विहार, अनाथाश्रम, धर्मशालाएं तथा दवाखाने बनवाये हैं क्या ये मेरे लिए श्रेयस्कर होंगे ? आचार्य ने कहा - "नहीं !" साश्चर्य सम्राट ने फिर पूछा - "देव, तथागत का सन्देश घर-घर पहुंचाने हेतु मैंने स्थान-स्थान पर दूत भेजे हैं, त्रिपिटकों की हजारों प्रतियाँ लिखवा कर वितरित की हैं। क्या यह मेरे लिए कल्याणकारी होगा ?" बोधिधर्म ने पुन: कहा - "नहीं !" सम्राट ने अपने भावावेश को दबाते हुए जिज्ञासा प्रस्तुत की - " तब आप ही बताइए, मेरा कल्याण किस चीज से होगा ?" समाधान की भाषा में प्राचार्य ने कहा"शील की साधना ही कल्याण का मार्ग है । मदिरों का निर्माण, धर्म प्रचार, शास्त्र लेखन - ये सब उल्लासकारी क्रिया कलाप हैं । शील की साधना से इनके महत्व में चार चाँद लग ज ते हैं।' सचमुच शताब्दी की वास्तविक सफलता तभी सम्भव है जब हमारी गति, मति, कृति व संस्कृति में हिंसा का नाद गूंज उठे। यही भगवान महावीर की सबसे बड़ी खिदमत होगी । " For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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