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________________ 1-48 दुसरे भाई ने कहा-“मैं तो चाहता हूँ कि है। प्रणुव्रतो वह हो सकता है जो सादगी पोर माप अपने श्रम पर निर्भर बन जाइए, ताकि नौकरी सन्तोष से जीवन व्यतीत करना चाहता है । से होने वाली बेइज्जती से बच सकें। प्राप मेरे काम को कष्टकर बता रहे हैं, पर मुझे स्वतन्त्र रह अणुव्रत का व्यापक प्रसार करने के लिए कर काम करने में मानन्द मिलता है। यह चिन्तन केवल साधु साध्वियों को ही नहीं, गृहस्थ कार्य की भिन्नता है कि एक ही काम को कोई अच्छा कर्ताओं को भी तैयार होना है। गृहस्थ कार्यकर्ता गानना है और कोई बुरा। पण व्रत की योजना को तभी क्रियान्वित कर पाएंगे जब पहले वे स्वयं अपरिग्रह को अपना पाकर्षण यह सच है कि आज व्यापारियों को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए वे केन्द्र बनाएगे। परिग्रह के प्रति जनता का जो व्यवस्था और सरकार दोनों को दोषी बताते हैं। झुकाव बढ़ रहा है, वह प्रानन्द में बाधा है। प्रात्मापर इसके साथ यह भी चिन्तनीय है कि व्यापारी नन्द प्राप्त करने के लिए सबसे अच्छा उपाय यही स्वयं अपनी प्रामाणिकता का कितना ध्यान रखते हैं कि व्यक्ति अपनी भाकांक्षाओं को उभरने का हैं ? स्वयं को अप्रामाणिकता से सरकार के साथ अवकाश न । प्रमाणिकता की प्राशा कैसे की जा सकती है ? भगवान मपावीर ने 'इच्छा-परिमाण' का जो व्यक्ति अप्रामाणिक क्यों बनता है? मेरी सत्र दिया है वह वर्तमान युग की ज्वलन्त समस्याओं दृष्टि में अप्रामाणिकता का सबसे बड़ा हेतु है का स्थायी समाधान है । भगवान महावीर की इच्छानों का विस्तार । आकांक्षाप्रो के विस्तार से शताब्दी मनाने की सार्थकता इसी में है कि उनके राष्ट्र की नैतिकता डांवाडोल स्थिति से गुजर रही सिद्धान्तों को लोकव्यापी बनाकर विश्वशान्ति की है। नैतिकता की नाव को डूबने से बचाना है तो स्थापना में कोई नया कीर्तिमान स्थापित किया सबसे पहले इच्छाओं का अल्पीकरण करना होगा। जाए। इसके लिए परिग्रह की दौड़ में प्रागे न बढ़ अणुव्रत इच्छाओं के अल्पीकरण में विश्वास कर पीछे मुड़कर देखना होगा। आकांक्षाओं के करके चलता है । अणुव्रती वह हो सकता है जो सीमाहीन विस्तार को एक परिधि में केन्द्रित करना मनावश्यक प्राकांक्षामो से मुक्त होकर चलता है। होगा। अन्यथा आकांक्षानों का यह प्रवाह आत्मप्रणवती वह हो सकता है जो अपव्यय से बचता तोष को अपने साथ बहा कर ले जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014031
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1975
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1975
Total Pages446
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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