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________________ ४२ श्रमणविद्या-३ मयि चित्तं पसादेत्वा, भिक्खुसङ्के अनुत्तरे । कप्पानि सतसहस्सानि, दुग्गतेसो न गच्छति ।। . स देवलोका चवित्वा कुसलकम्मेन चोदितो । भविस्सति अनन्तबाणो, सोमनस्सो तिविस्सुतो ।। मण्डलाक्ष (वर्तुल, गोल आँखों वाला) उलूक, जो चिरकाल तक वेदयिक वृक्ष पर निवास करता रहा, वह उलूक (कौशिक) निश्चय ही सुखी है जो समय से उठकर श्रेष्ठ बुद्ध को देखता है। अनुतर भिक्षुसंघ में तथा मुझ में चित्त को विप्रसन्न कर शतसहस्र कल्प तक यह दुर्गति को प्राप्त नहीं करेगा। वह देवलोक से च्युत होकर, कुशल से प्रेरित हो अनन्त प्रज्ञान वाला होगा, अपूर्वविश्रुत सौमनस्य से युक्त होगा। इस प्रकार श्रमण दर्शन से मनुष्य को अनन्त प्रज्ञान, अपूर्व सौमनस्य, धन, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होने के कारण यह उत्तम मंगल है। ४. 'धम्मसाकच्छा' अर्थात् उचित ऋतु या समय में धार्मिक प्रतिसंवाद (विचार विनिमय) को भगवान् बुद्ध ने उत्तम मंगल कहा है। भगवान् बुद्ध की धर्मदेशनाओं पर विचार-विनिमय (प्रतिसंवाद) करना नैतिक कर्तव्य है। यह कहा गया है कि सूत्र-विशेषज्ञ भिक्षु सूत्रों के बारे में परस्पर विचार करते हैं, विनय के विशेषज्ञ विनय के विषय में दो अभिधर्म के विशेषज्ञ अभिधर्म के विषय में, दो जातकभाणक विशेषज्ञ जातक के विषय में, दो अट्ठकथा विशेषज्ञ, अट्ठकथा के विषय में लीन, उद्धत एवं विचिकित्सा अर्थात् संशयायन्न चित्त के विशोधन के लिए उस समय में अर्थात् समय-समय पर बातचीत करते हैं। प्रतिसंवाद (विचार-विनिमय) पाँच प्रकार के कहे गए हैं १. अदिट्ठजोतना (अदृष्ट-द्योतना) साकच्छा-अदृष्ट धर्म के विषय में विचार-विनिमय। २. दिट्ठसंसन्दन-साकच्छा-दृष्ट धर्म के अनुभव के लिए विचार विनिमय। ३. विमतिच्छेदन-साकच्छा-अनेक प्रकार के संशयों के छेदन अर्थात् निराकरण के लिए विचार विनिमय। ४. अनुमति-साकच्छा-धर्म की अनुमति या सहमति के लिए विचारविनिमय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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