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________________ श्रमणविद्या-३ २८. सुन्दरवचन का प्रयोग करना, सुवचन करणता (सोवचस्सता)। २९. यथाकाल श्रमणों का दर्शन करना (समणानञ्च दस्सनं)। ३०. यथाकाल धर्मसंलाप करना (कालेन धम्मसाकच्छ)। ३१. तपश्चरण करना, उद्योगपरायण होना (तपो च)। आतापी होना (तप इन्द्रिय संयम है, यह अभिध्या, दौर्मनस्य तथा कौसीद्य को भस्मीभूत कर देता है। ३२. ब्रह्मचर्य का पालन करना (ब्रह्मचरियञ्च)। ३३. चार आर्यसत्य का दर्शन करना, उसका सम्यक् प्रतिवेध प्राप्त करना __ (अरियसच्चान दस्सनं)। ३४. अमोस धर्म, प्रपञ्चोपशम धर्म निर्वाण का साक्षात्कार करना (निब्बानसच्छिकिरिया च)। ३५. मान-अपमान, सुख-दुःख, हानि-लाभ निन्दा-प्रशंसा तथा आदर-अनादर में विचलित न होना (फुट्ठस्स लोकधम्मेहि चित्तं यस्स न कम्पति)। ३६. शोक में विचलित न होना (असोकं)। ३७. संक्लेशों से चित्त को मुक्त करना (विरजं)। ३८. चित्त को क्षेमयुक्त करना (खेमं)। उपर्युक्त अड़तीस प्रकार के मङ्गलों को निम्न शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है १. सामाजिक सिद्धान्त २. सामाजिक आचारदर्शन ३. धर्मिक जीवन के सिद्धान्त ४. निर्वाण के अधिगम का मार्ग सामाजिक सिद्धान्त व्यक्तियों के समूह को समाज कहते है। 'समाज' शब्द का अर्थ हैसमान से जाना, सबों के अनुकूल व्यवहार करना, समान आदर्शों एवं नियमों तथा नीतियों का पालन करना। समाज एक समुन्नत संस्था है जिसका जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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