SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काशी और जैनश्रमणपरम्परा २२३ माना जाता है, परन्तु जैन परम्परा मानती है कि इसका निर्माण श्रेयांसनाथ की जन्मनगरी होने के कारण सम्राट सम्प्रति ने कराया होगा। स्तूप के ठीक सामने सिंह है जिसके दोनों स्तम्भों पर सिंह चतुष्क बना है। सिंहों के नीचे धर्मचक्र है, जिसके दायीं ओर वृषभ और घोड़े की मूर्तियों का अकंन है। भारत सरकार ने इस स्तम्भ की सिंहस्तम्भ को राजचिन्ह के रुप में स्वीकार किया है और धर्मचक्र को राष्ट-ध्वज पर अंकित किया है। जैन मान्यतानुसार प्रत्येक तीर्थङ्कर का एक विशेष चिह्न होना स्वीकार किया जाता हैं, जिसे प्रत्येक तीर्थङ्कर प्रतिमा पर अंकित किया जाता हैं। चित्रांकित प्रतिमा से यह ज्ञात होता है कि यह अमुक तीर्थङ्कर की प्रतिमा है। वे चिह्न मांगलिक कार्यों और मांगलिक वास्तुविधानों के मंगल चिन्ह के रूप में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरणार्थ तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक चिन्ह है, जिसे प्राय: सम्पूर्ण भारत में जैन ही नहीं ,वरन् जैनेतर सम्प्रदायों द्वारा समस्त मांगलिक अवसरों पर प्रयोग किया जाता है। सिंह महावीर का चिन्ह है। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव का वृषभ और अश्व तृतीय तीर्थङ्कर सम्भवनाथ का चिन्ह है। इसी प्रकार धर्मचक्र तीर्थङ्करों और उनके समवसरण का एक आवश्यक अंग है। तीर्थङ्कर केवलज्ञान के पश्चात् जो प्रथम देशना होती है उसे धर्मचक्र प्रवर्तन की संज्ञा दी गई हैं। यही कारण है कि प्राय: सभी प्रतिमाओं के सिंहासनों और वेदियों में धर्मचक्र बना रहता हैं। जैन शास्त्रों में स्तूप के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण प्राप्त होते हैं। जैन वाङ्मय में स्तूपों के १० भेद बताये गए हैं। सारनाथ स्थित जो स्तूप है वह प्रियदर्शी सम्राट सम्प्रति का हो सकता है क्योंकि प्रथमत: यह स्थान श्रेयांसनाथ तीर्थङ्कर की कल्याणक भूमि है। द्वितीयत: 'देवानां प्रियः' यह जैन परम्परा का शब्द है। जैन सूत्रसाहित्य में कई स्थानों पर इसका प्रयोग किया गया है। इसका प्रयोग ‘भव्य श्रावक' आदि के अर्थ में हुआ है। अथर्ववेद में भी इस शब्द का प्रयोग सभ्य लोगों के लिए किया गया है। पुरातत्त्वज्ञ सम्भवत: इन्हीं कारणों से इस सन्देह को इस प्रकार व्यक्त करते हैं—“सम्भवत: यह स्तूप सम्राट अशोक द्वारा निर्मित हुआ।” चन्द्रपुरी (चन्द्रावती) काशी से २०कि.मी. दूर यह स्थान ८वें तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ के जन्मस्थान से सम्बन्धित हैं। इस सन्दर्भ में परम्परागत स्रोत ही उपलब्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy