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________________ शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान १८१ बीसवीं सदी के अंतिम दो-तीन दशकों में शौरसेनी प्राकृत के विकास और व्यापक प्रसार हेतु अनेक पूज्य आचार्यों, भट्टारकों एवं विद्वानों ने विशेष योगदान किया। इनमें बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी परमपूज्य राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यानंदजी ने नई दिल्ली स्थित प्राकृत भवन, कुन्दकुन्दभारती के माध्यम से शौरसेनी राष्ट्रीय विद्वत् संसद, शौरसेनी प्राकृत सम्मेलन, प्राकृत भाषा दिवस (श्रुतपंचमी) पर प्राकृत काव्यगोष्ठी तथा प्राकृतविद्या नामक गौरवशाली शोध पत्रिका तथा शौरसेनी भाषा के विविध ग्रन्थ प्रकाशन आदि गौरवपूर्ण अभियान रूप प्रवृत्तियों की प्रेरणा के माध्यम से शौरसेनी प्राकृत के विकास को विशेष गतिमान कर रहे हैं। प्राकृत भाषा के सभी प्रमुख वैयाकरणों में जैसे वररुचि, हेमचंद्र, क्रमदीश्वर, लक्ष्मीधर और मार्कण्डेय आदि ने अपने प्राकृत व्याकरण ग्रन्थों में शौरसेनी प्राकृत भाषा का भी व्याकरण लिखा है। यहाँ इस भाषा की प्रमुख विशेषतायें प्रस्तुत हैंशौरसेनी प्राकृत की प्रमुख विशेषतायें शौरसेनी प्राकृत की कुछ निजी विशेषतायें हैं, जो अन्य-प्राकृतों से उसकी पृथक् पहचान में मदद करती हैं, वे विशेषतायें इस प्रकार हैं १. स्वरवर्णों के मध्यवर्ती असंयुक्त 'त' और 'द' के स्थान पर 'द' होता है। उदाहरण - रजत > रअद, आगतः> आगदोः अन्न:पुरम > अन्देउरं गदा > गदा। २. स्वरों के बीच असंयुक्त 'थ' का 'ह' और 'ध' दोनों होते हैं। उदाहरण - नाथ > णाध, णाह। ३. र्य के स्थान में य्य और ज्ज होता हैं। उदाहरण- आर्य > अय्य, अज्ज। सूर्य > सुय्य, सुज्ज। ४. पञ्चमी के एक वचन में दो, दु-ये दो ही प्रत्यय होते हैं और इनके योग में पूर्व के अकार का दीर्घ होता है, उदाहरण - जिनात् > जिणादो, जिणादु। ५. ति और ते प्रत्ययों के स्थान में दि और दे होता है। उदाहरण -- हसदि, हसदे, रमदि, रमदे। ६. भविष्यत काल के प्रत्यय के पूर्व में स्सि लगता है। उदाहरण - हसिस्सिदि, करिस्सिदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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