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________________ श्रमणविद्या- ३ क्षेत्र में सिन्ध, पंजाब पश्चिम में द्वारका, उत्तर में हरियाणा और दिल्ली, उत्तरपूर्व में बंगाल, दक्षिण पूर्व में आंध्रतट तथा उड़ीसा एवं दक्षिण में विन्ध्यपर्वत का अति विस्तृत क्षेत्र सम्मिलित रहा है। ब्रह्माण्डपुराण (२/१६/४१-४२) में मध्यदेश के अन्तर्गत जिन जनपदों के नाम उल्लिखित हैं, वे इस प्रकार हैंशूरसेन, भद्रकार, बोध, पटच्चर, मत्स्य, कुशल्य, कुंतल, काशी, कोसल, गोधा, भद्र, कलिंग, मगध और उत्कल । इन जनपदों में शौरसेनी प्राकृत भाषा प्रमुख रूप में प्रभावशाली रही है। १८० मौर्ययुग में जैन मुनिसंघ दक्षिण की ओर गया तो उन्होंने अपने शास्त्रलेखन का माध्यम भी इसी शौरसेनी को बनाया। इससे सम्पूर्ण दक्षिणभारत में शौरसेनी भाषा का प्रयोग हुआ। इसका प्रसार क्षेत्र काफी व्यापक होने से अर्धमागधी, महाराष्ट्री-संस्कृत आदि भाषायें और अनेक बोलियाँ इसके सम्पर्क में आई । अतः इनके तत्त्व भी इसमें सम्मिलित होते चले गये। नाट्य-विधा के अनुसार नाटकों में भी प्राकृत भाषा का प्रयोग अनिवार्य था ही, क्योंकि नाट्यशास्त्र के प्रणेता भरतमुनि ने नाटकों में प्रयुक्त होने वाली मागधी, अवधी, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, बाल्हीका एवं दक्षिणात्या - इन सात भाषाओं का उल्लेख किया है। किन्तु नाटकों में शौरसेनी प्राकृत का ही ज्यादा प्रयोग मिलता है। इस शौरसेनी का स्वरूप भी कुछ नियमों तक ही सीमित है। यह भी एक तथ्य है कि प्राकृत के आधार पर इस भाषा के कुछ नियमों के साथ शौरसेनी प्राकृत का व्याकरण लिख दिया। किसी ने भी सम्पूर्ण शौरसेनी के आधार पर स्वतंत्र और सर्वाङ्गीण व्याकरण नहीं लिखा। फिर भी इससे इस भाषा की व्यापकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा । नाटकों, शिलालेखों, और लोकव्यवहार में प्रचलित जनभाषा के रूप में प्रयोग क्षेत्रों और विशेष कर दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थों की मूलभाषा होने से शौरसेनी का प्रभाव और उसकी व्यापकता सदा अक्षुण्ण रही है। वस्तुतः ईसा की प्रथम शती ( वीर निर्वाण संवत् ६८३ ) में काठियावाड़ (गुजरात) जैन संस्कृति का समृद्ध केन्द्र था । यहीं आचार्य धरसेन गिरनार की चन्द्रगुफा में ध्यानयोग की साधना में संलग्न रहकर उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलि को आगमज्ञान प्रदान किया, जिसके आधार पर इन दोनों आचार्यों ने इसी शौरसेनी प्राकृत भाषा में षट्खण्डागमसूत्र नामक विशाल जैन सिद्धान्तग्रन्थ की रचना की । आचार्य गुणधर, आचार्य शिवार्य, आचार्य वट्टकेर तथा आचार्य कुन्दकुन्द आदि अनेक आचार्यों ने उत्कृष्ट साहित्य का सृजन करके इस भाषा को सार्वभौमिकता प्रदान की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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