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________________ शौरसेनी प्राकृत साहित्य के आचार्य एवं उनका योगदान १७९ सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ । एंति समुदं चिय णेति सायराओ च्चिय जलाइं ।। अर्थात्-जिस प्रकार जल समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्परूप से बाहर निकलता है, इसी तरह प्राकृत भाषा में सब भाषाएं प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भाषा से ही सब भाषाएँ निकलती हैं। तात्पर्य यह है कि प्राकृतभाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, किन्तु देश में विद्यमान प्राय: सभी भाषाएँ प्राकृत से ही उत्पन्न हैं। प्राकृत भाषा और साहित्य तो जैनधर्म का प्राण ही है। यही कारण है कि महान् जैनाचार्यों ने आचार, विचार, व्यवहार, सिद्धान्त एवं अध्यात्म आदि को सरल रूप में समझने तथा तदनुकूल आदर्श जीवन ढालने एवं लोककल्याण की दृष्टि से प्राकृत भाषा में उपदेश-प्रधान धर्मकथा विषयक साहित्य का प्रणयन किया। साथ ही नैतिक उपदेश, मर्मस्पर्शी कथन एवं लोकपक्ष का उद्घाटन करते समय सरल, सहज, स्निग्ध तथा मनोरम शैली का उपयोग किया। प्राकृत भाषा के अनेक भेद हैं, जैसे-शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, महाराष्ट्री, पैशाची, पालि, शिलालेखी प्राकृत आदि। वस्तुत: बौद्ध त्रिपिटकों की पाली भाषा भी प्राकृत का ही एक रूप है। आगे जिस शौरसेनी प्राकृत भाषा के साहित्य का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है, उस शौरसेनी भाषा की विशेषतायें प्रस्तुत हैंशौरसेनी प्राकृत भाषा एवं इसका प्रभाव क्षेत्र सम्पूर्ण ब्रजमण्डल अर्थात् मथुरा के आसपास का सम्पूर्ण प्रदेश शूरसेन कहलाता है। शौरसेनी भाषा की उत्पत्ति इसी शूरसेन देश (मथुरा प्रदेश) से हुई। षड्भाषा चन्द्रिका (पृ.२) में लक्ष्मीधर ने कहा है-'शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते। वररुचि ने प्राकृतप्रकाश में मागधी की मूलप्रकृति होने का सम्मान शौरसेनी को दिया है। देशभेद के कारण मागधी और शौरसेनी इन दो प्राकृतों को प्राचीन माना जाता है। मागधी भाषा का प्रचार काशी के पूर्व (मगध) में था, शौरसेनी का काशी के पश्चिम में। सम्राट अशोक के शिलालेखों में इन दोनों ही भाषाओं के प्राचीनतम स्वरूप सुरक्षित हैं। सम्राट खारवेल के उदयगिरि-खण्डगिरि का हाथीगुम्फा शिलालेख भी शौरसेनी प्राकृत का साक्षात् • प्रमाण है। इससे इस समस्त क्षेत्र में शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव भी स्पष्ट है। इस प्रकार शौरसेनी का उत्पत्ति क्षेत्र भले ही मथुरा के आसपास का क्षेत्र (शूरसेन) रहा हो, किन्तु इसका इतना व्यापक प्रसार और प्रभाव क्षेत्र रहा है कि यह सम्पूर्ण मध्यदेश की भाषा बन गई। मध्यदेश का क्षेत्र विस्तार पश्चिमोत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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