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________________ १२२ श्रमणविद्या-३ शोभाकर के पूर्ववर्ती आचार्य आनन्दवर्धन ने रस की प्रधानता और गौणता के आधार पर काव्य के मुख्यत: दो भेद-ध्वनि और गणीभूतव्यंग्य स्वीकार किये हैं। शोभाकर को भी उन्हें स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है। चित्रकाव्य का इन्होंने भी निराकरण ही किया हैं। ध्वनिस्वरूप के विषय में शोभाकर का कथन है – 'यत्र तु वाच्यस्य व्यंग्यार्थ पर्यवसायितया व्यंग्यस्य प्राधान्यं न व्यंग्यगर्भता स ध्वनर्विषयः। (अलकारत्नाकर पृष्ठ८०) अर्थात् जहाँ वाच्यार्थ का व्यंग्यार्थ में पर्यवसान होने में व्यंग्य की प्रधानता होती है, व्यंग्यगर्भता नहीं वह ध्वनि का विषय हैं। शोभाकर की इन पंक्तियों को ध्वनिकार का अनुवादमात्र कहा जा सकता है। ध्वनि के विषय में ध्वनिकार का कथन हैं 'यत्रार्थः शब्दो वा तमर्थमुपसर्जनीकृतस्वार्थौ । व्यक्तः काव्यविशेषः स ध्वनिरिति सूरिभिः कथितः ।। अर्थात् जिस काव्य में वाचक शब्द एवं वाच्य अर्थ गौण रहते हुए, प्रतीयमान अर्थात् व्यंग्य अर्थ को प्रधानता से अभिव्यक्त करते हैं। उस काव्यविशेष को ध्वनि कहते हैं। गुणीभूतव्यंग्य काव्य वहाँ होता हैं, जहाँ प्रतीयमान अर्थ की अपेक्षा वाच्यार्थ ही चमत्कारकारी होता है। यथा 'तस्य प्रतीयमानस्य वाच्यं प्रति उपस्कारकत्वाद् गुणीवृत्तत्वेन अलंकार्यत्वाभावाद् अलंकारता। वाच्यस्यैवोपस्कार्यत्वेन प्राधान्याद् अलंकारता।' इसी प्रसङ्ग में आगे शोभाकारमित्र गुणीभूतव्यंग्य के स्फुट नाम के भेद का खण्डन करते हैं और उसे असुन्दर नामक भेद में अन्तर्भूत मानने का पक्ष प्रस्तुत करते हैं। यथा ___'अत्र वाच्यापेक्षया व्यंग्यस्य चमत्कारकारित्वाभावात्तद्सुन्दराख्ये गुणीभूतव्यंग्यभेदेऽन्तर्भावात्किं स्फुटत्वरूपदोषोद्भावेन।..... किन्तु गुणीभूतव्यंग्य के भेद के विषय में यह शोभाकर का अपना मत नहीं प्रतीत होता। यह तो भेदवादियों के मत में सुधारहेतु परामर्शमात्र हैं। उनके अपने मत में तो गुणीभूतव्यंग्य के भेद का अभाव ही है १. अलंकाररत्नाकर पृष्ठ८०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
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