SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शोभाकार मित्र की काव्यदृष्टि १२१ के अलकारों की कल्पना की। उक्तिवैचित्र्य की इस प्रतीति में कल्पना के धनी शोभाकर क्यों पीछे रहते? यद्यपि बीच-बीच में कुछ ऐसे भी आचार्य हुए यथा हेमचन्द्र, वाग्भट, मम्मट आदि जिन्होने अलंकारों की बाढ़ रोकने का प्रयास किया, किन्तु वे अंशत: ही सफल हो सके। - इस संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शोभाकर के पूर्व साहित्यशास्त्र के आचार्यों की एक लम्बी परम्परा रही हैं। अलंकारशास्त्र के सभी सम्प्रदाय शोभाकर के पूर्व उदभूत हो चुके थे और ध्वनि प्रस्थापन परमाचार्य, मम्मट ध्वनि सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित कर अन्य सम्प्रदाय के मतवादों को निरस्त कर चुके थे। शोभाकर जो मम्मट के कुछ काल अनन्तर ही आविर्भूत हुए इससे अप्रभावित कैसे रहते। साथ ही अपनी स्वतंत्र चिंतन प्रतिभा तर्कप्रवणता और विविधतापूर्ण वैदुष्य के कारण किसी एक आचार्य का अन्धानुकरण करना भी उनके लिए सम्भव कैसे रहता। फलत: जो विचार उन्हें उचित तथा तर्कसंगत प्रतीत हुए उसे उन्होनें विना किसी संकोच एवं दुराग्रह के पूर्ववर्ती आचार्यों से ग्रहण किया और जहाँ उन्हें इनके विचारों से असहमति प्रतीत हुई, उन्होनें अपना स्वतंत्र मत प्रतिपादित किया। अस्तु। 'शब्दार्थों काव्यम्' यह शोभाकर का काव्यलक्षण है, अर्थात् न तो केवल शब्द काव्य हैं और न केवल अर्थ-काव्य हैं। शब्दार्थयुगल शब्द और अर्थ ये दोनों काव्य के घटक हैं। शब्द त्रिविध हैं-वाचक, लाक्षणिक और व्यंजक। किन्तु अर्थ चार हैं। वाच्य, लक्ष्य, अर्थसामर्थ्यलभ्य जैसे तुल्ययोगिता आदि में औपम्य आदि और व्यंग्य। त्रिविध शब्द तथा प्रारंभ के तीनों भेदों सहित अर्थ ये काव्य के अंग, शरीर हैं, अंगी आत्मा तो व्यंग्यार्थ अर्थ का चतुर्थ भेद है, जो रस आदि हैं 'शब्दश्च वाचकलाक्षणिकव्यञ्जकत्वेन त्रिभेदोऽपि तच्छरीरैकदेशभूत: वाच्यलक्ष्यार्थसामर्थ्यलभ्यव्यंग्यतयार्थश्चतुर्भेदः। अर्थसामर्थ्यलभ्यार्थों यथा तुल्ययोगितादादौपम्यादि। तत्रार्थस्त्रिभेद: काव्यशरीरावयवः शब्दार्थशरीरत्वावत्तस्य। व्यंग्यस्तु रसादिः। काव्यजीवितहेतुभूतत्वेन तस्याङ्गित्वम्।। रस को काव्यजीवितमानना नि:सन्देह ध्वनिसम्प्रदाय का ही अनुसरण है। . साथ ही अर्थसामर्थ्यलभ्य अर्थ को स्वीकार करके शोभाकार ने एक नवीन विचार की प्रस्तुति की हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस नवीन अर्थ के बोध के लिये वे अनुमान का आश्रय लेते है। १. द्रष्टव्य- अलंकाररत्नाकर पृष्ठ १८९; २. अलंकाररत्नाकर पृष्ठ १८९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014030
Book TitleShramanvidya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmadev Narayan Sharma
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year2000
Total Pages468
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy