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________________ कैसायमहुडसुत्तं तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ प्रकाशित है, उसके सम्पादकों ने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के विषय में पर्याप्त ऊहापोह किया है। कसायपाहुड के चूर्णिसूक्तों के कर्ता यतिवृषभ तथा वर्तमान में उपलब्ध तिलोयपण्णत्ति को एक मानने में जो प्रश्न उपस्थित होते हैं, उन पर भी विद्वानों ने विचार किया है ।२५ कषायपाहुड के अध्ययय-अनुशीलन में इस सब सामग्री का उपयोग किया जाना चाहिए। वीरसेन-जिनसेन ___कसायपाहुड के गाहासुत्त तथा यतिवृषभ के चुण्णिसुत्त वर्तमान में वीरसेनजिनसेन की विशालकाय जयधवला टीका के माध्यम से ही उपलब्ध हुए हैं। यह टीका मणिप्रवाल न्याय से प्राकृत और संस्कृत मिश्रित शैली में लिखी गयी है। इसका परिमाण साठ हजार श्लोक प्रमाण है। पटखंडागम पर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के बाद जयधवला टीका लिखी गयी। यह रचना शक संवत् ७५९ (ई० सन् ८३७) में पूरी हुई। उस समय राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का राज्य था। टीकाकार के समय आदि के विषय में उसके सम्पादकों ने विस्तार से विचार किया है। जयधवला टीका का महत्त्व अनेक दृष्टियों से है । वीरसेन ने यह टीका लिखना प्रारम्भ की थी, किन्तु वे उसे पूरा करने के पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये। उनके शिष्य जिनसेन ने अपने गुरु द्वारा आरम्भ किए इस महत्त्वपूर्ण कार्य को उसी निष्ठा और योग्यता के साथ सम्पन्न किया । टीका में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि कितनी टीका वीरसेन ने और कितनी जिनसेन ने लिखी। ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति से तथा वीरसेन के लिए भूतकाल की क्रिया के प्रयोग से इस बात का पता चलता है। जिनसेन ने लिखा है कि 'गुरु' के द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्ध के लिखे जाने पर, उसको देखकर इस अल्प वक्तव्य उत्तरार्ध को उसने पूरा किया ।२६ इससे यह ज्ञात नहीं होता कि पूर्वार्ध कहाँ तक है। जयधवला टीका विशद्, स्पष्ट और गम्भीर है। शैली व्याख्यात्मक होते हुए भी अनेक नये तथ्यों से परिपूर्ण है। प्राचीन आचार्यों के मतों का पूर्ण प्रमाणिकता के साथ उल्लेख किया गया है । टीकाकार ने प्राचीन आगमिक परम्परा की पूरी रक्षा की है तथा एक ही विषय में प्राप्त विभिन्न आचार्यों के विभिन्न उपदेशों का उल्लेख किया है । सैद्धान्तिक चर्चा के लिए प्राकृत का उपयोग किया गया है तथा दार्शनिक चर्चाएँ और व्युत्पत्तियाँ संस्कृत में निबद्ध हैं। कहीं-कहीं ऐसे वाक्य भी मिलते हैं जिनमें प्राकृत और संस्कृत दोनों प्रयुक्त हैं। ___जयधवला टीका में कसायपाहुड की गाथाओं और चूणिसूक्तों में निहित विषय २५. जैन साहित्य का इतिहास, भाग १, २ । २६. जयधवला प्रशस्ति, श्लो० ३६। संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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