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________________ श्रमणविद्या को विशद रूप से पूर्णतया स्पष्ट किया गया है । यहाँ तक कि चूर्णिकार द्वारा प्रयुक्त अंकों तक की व्याख्या प्रस्तुत की है। इसके साथ ही अनेक दार्शनिक और सैद्धान्तिक मतों को आचायों के नामोल्लेख पूर्वक प्रस्तुत किया है।। जयधवला टीका का सर्वाधिक महत्त्व इस बात में है कि टीकाकार ने कसायपाहुड के 'गाहासुत्त' और यतिवृषभ द्वारा उन पर रचे 'चुण्णिसुत्त' टीका में पूर्ण रूप से समाहित करके उस अमूल्य निधि को सुरक्षित बचा लिया । यदि जयधवलाकार इसे सुरक्षित न रखते तो वे दोनों महान् ग्रन्थ अन्य अनेक प्राचीन आगम ग्रन्थों की तरह लुप्त हो गये होते । कसायपाहुड का अनुशीलन इस टीका के विना शक्य नहीं हैं। अर्धमागधी परम्परा में कसायपाहुड अर्धमागधी के उपलब्ध साहित्य में वर्तमान में कसायपाहुड नाम का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है तथापि उपलब्ध सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि अर्धमागधी परम्परा में कसायपाहुड की मान्यता प्रायः १०वीं शती तक रही है। __ अर्धमागधी में कमंसिद्धान्त विषयक साहित्य स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध है। कम्मपयडो७ तथा पञ्चसंग्रह नाम से दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में उपलब्ध हैं। कम्मपयडो पर अर्धमागधी परम्परा में चुणि और टीकाएँ भी प्राप्त हैं । शौरसेनी परम्परा के उपलब्ध कसायपाहुड में प्राप्त सत्रह गाथाएँ किञ्चित् पाठ भेद के साथ इस कम्मपयडी में भी पायी जाती हैं। कसायपाहुड के संक्रम अधिकार की २७ से ३९ तक को तेरह गाथाएँ कम्मपयडी के संक्रमकरण अधिकार में पायी जाती हैं । इसी तरह दर्शनमोह के उपशम अधिकार की गाथा संख्या १००, १०३, १०४, १०५ कम्मपयडि में इसी प्रसंग में उपलब्ध हैं। पंडित हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री ने अपनी प्रस्तावना में तथा पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने जैन साहित्य का इतिहास में दोनों पर तुलनात्मक रूप से विचार किया है ।२८ । ___ कम्मपयडी को चूर्णिकार ने कम्मपयडीसंग्रहणी नाम दिया है और प्रथम गाथा को उत्थानिका में लिखा है कि विच्छिन्न कर्मप्रकृति महाग्रन्थ के अर्थ का ज्ञान कराने के लिए आचार्य ने सार्थक नाम वाला कर्मप्रकृतिसंग्रहणी नामक प्रकरण रचा है। कम्मपयडि के कर्ता शिवशर्म सूरि माने जाते हैं। उन्होंने दृष्टिवाद के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व में से उद्धार कर यह ग्रन्थ लिखा। इनका समय निश्चित् नहीं हैं, फिर भी वि. सं० . ०० के आस-पास अनुमानित किया जाता है ।२९. चन्द्रषि महत्तर (८-१० शती) ने अपने पञ्चसंग्रह की रचना में जिन पाँच २७. कर्मप्रकृति, मुक्ताबाई ज्ञानमंदिर, डभोई, अहमदाबाद । २८. जैन साहित्य का इतिहास, भाग १, पृ० २९७.३०१ । २९. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास । संकाय-पत्रिका-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014029
Book TitleShramanvidya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulchandra Jain
PublisherSampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
Publication Year1988
Total Pages262
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size9 MB
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