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________________ भगवान महावीर प्रभु का तीसरा भव मरीचि के रूप में 0 राजमल सिंघवी नयसार के जीवन में आई हुई प्रकाश के एक देखकर लोग उनको धर्म पूछते, तो वे सच्चा संयम तो पल ने उसके जीवन में एक नया ही मोड़ दिया और भगवान ऋषभ प्रभु के मुनि धर्म को ही बताते। अपनी वह सौधर्म देवलोक में देव हुआ। एक दिन देवलोक त्रुटि मानते हुए उनकी आँख में एक छिपा हुआ आँसू का विराट आयुष्य का काल भी पूर्ण हुआ और वह आ जाता । इस प्रकार अनके मनुष्यों को सद्धर्म समझाकर देव विशाल वैभवों से भरे हुए महाराजा भरत के यहाँ वे उनको ऋषभ प्रभु के श्रमण संघ में ही शामिल करते। उनके पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ और उसका नाम रखा विहार भी वे प्रभु के साथ ही करते थे। कुछ वर्ष तक गया मरीचि । महाराजा भरत ऋषभप्रभु की वंदना करने ऐसा चलता रहा। आचार से अलग हुए मरीचि, विचार आए। मरीचि भी साथ ही था। प्रभु की पहली देशना से अलग नहीं हुए। कई श्रावकों को उन्होंने ऋषभ प्रभु के श्रवण से ही उनमें संयम की लगन जग गई। पिता का मुनि धर्म दिलवाया। भरत राजा की अनुमति मिल गई तो संसार की ऋद्धि कई वर्ष बीत गए। विनीता नगरी का उद्यान को ठुकराकर मरीचि ने मुनि धर्म स्वीकार किया। ऋषभ प्रभु के पधारने से प्रसन्न हुआ । महाराजा भरत भगवान के साथ विहार करते हुए मरीचि मुनि उनकी धर्म देशना सुनने आये। भविष्य में होने वाले संयम धर्म की एक-एक सीढ़ी को पावन बनाते हुए तीर्थंकर, चक्रवर्तियों, वासुदेवों, प्रतिवासुदेवों एवं आगे बढ़ने लगे, किन्तु एक ऐसा प्रमाद का पल आ बलदेवों को जानने की भरत की इच्छा की पूर्ति प्रभु गया कि मुनि मोहाधीन हो गये। गरमी के दिन थे, की वाणी से हुई। भरत ने अंत में पूछा कि 'भगवान भगवान का मुनि धर्म तो छत्र की छाया को नहीं मानता, इस समवशरण में क्या कोई ऐसा जीव है जिसके भाग्य जूतियों से प्रेम करने की इसमें आज्ञा नहीं थी। स्नान में तीर्थंकरत्व का लेख लिखा हो।' तब भगवान ने कहा के साथ तो इसका स्नहे था ही नहीं। विलेपन की बात कि 'हे भरत, यह मरीचि चरम तीर्थंकर महावीर की तो इसमें थी ही नहीं। मुनि मरीचि इस परीषह से टक्कर आत्मा है।' अपने पुत्र का ऐसा महान भविष्य सुनते नहीं ले सके। मुनि ने नया वेश धारण कर लिया। मुनि ही भरत ने रोमांच अनुभव किया। प्रभु ने फिर फरमाया मरीचि ने त्रिदंडी संन्यास धारण कर लिया। सिर पर कि हे भरत, मरीचि भगवान महावीर होगा। वह इसके शिखा रखकर मुंडन, हाथ में दण्ड, थोड़ा परिग्रह, बीच में कई महान ऋद्धियों का स्वामी बनेगा । पोदनपुर भगवाँ कपड़े, छाया के लिए छत्र, चंदन का सुगंधित में त्रिपुष्ट नामक पहिला वासुदेव एवं विदेह क्षेत्र की लेप, अल्प जल से स्नान और पाँव में जूतियाँ। प्रमाद मूकापुरी नगरी में प्रिय मित्र नाम का चक्रवर्ती होने के के पल में मरीचि मुनि ने नया वेश सर्जित किया। लेख भी मरीचि के भाग्य में लिखे हुए हैं। आचार से दूर हुए मरीचि विचार से तो भगवान ऋषभ देशना पूरी हई । भरत महाराजा का हृदय मरीचि प्रभु के ही अनुयायी रहे थे, किन्तु इनका नया वेश में छिपे हुए भविष्य के महावीर को वंदन करने के लिए महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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