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________________ लालायित हुआ तो वे मरीचि के पास आकर वंदन करते तो मैं उसको प्रतिबोध करके मेरा शिष्य बनाऊँ। उसकी हुए बोले कि 'मरीचि तुम संन्यासी हो, भगवा तुम्हारा बीमारी समाप्त हुई, तब वह जब स्वस्थ होकर विचरण वेश है, भरत के प्रथम चक्रवर्ती की तुम संतान हो, करने लगा, तब कपिल नाम का एक धर्म-जिज्ञासु इसकारण नहीं, किन्तु तुम चौबीसवें तीर्थपति महावीर मरीचि के पास आया। आरंभ में तो मरीचि ने उसको होने वाले हो। अतः मैं तुम्हें वंदन करता हूँ। त्रिपष्ट ऋषभ संघ में ही धर्म बताया, किन्तु उसकी डगमगाती वासुदेव एवं प्रियमित्र चक्रवर्ती भी तम होगे. किन्त मेरा विचार-ज्योत अभी पूरी बुझी नहीं थी। कपिल ने फिर वंदन तो तुम्हारे में छिपे हुए महावीर को ही है।' पूछा कि 'यदि धर्म भगवान ऋषभ प्रभु के संघ में ही है, तो फिर आपने यह नया वेश कैसे पहना है।' तब भरत विदा हुए। मरीचि भविष्य की अपनी मरीचि ने अपनी अशक्ति को स्वीकार करते हुए कहा ऋद्धि की कल्पना को पचा नहीं सका। उसके हृदय में कि 'अशान्त हूँ, किन्तु धर्म तो वही है।' कपिल ने गर्व से भरे हुए शब्द घूमने लगे कि 'मैं वासुदेव, मैं - फिर पूछा कि क्या धर्म ऋषभ संघ में ही है? क्या आप चक्रवर्ती, मैं तीर्थंकर।' में उसका अंश भी नहीं है?' मरीचि खड़ा हो गया एवं अपने आनन्द तथा तब मरीचि ने आँख के आगे उसका बीमारी हर्ष को व्यक्त करता हुआ गर्व-नृत्य करते हुए बोला का काल ताजा हुआ और उसको मुनियों द्वारा बताई कि 'वासुदेवों में मैं पहला, चक्रवर्तियों में मेरे पिता हुई सेवा-हीनता का विचार आया । कपिल में उसको पहले, तीर्थंकरों में मेरे पितामह ऋषभ प्रभु पहले। शिष्यत्व की योग्यता दिखाई दी। उसके पतन के इस अहो, मेरा कैसा उत्तम कुल है?' इस गर्व-नृत्य में पल में सावधानी खोकर मरीचि ने उत्तर दिया कि मरीचि ने कुल का मद करने से नीच गोत्र का कर्म बांध 'कपिल साधु के मार्ग में भी धर्म है और मेरे मार्ग में लिया। भी धर्म है।' कपिल को तो धर्म की छाप की आवश्यकता कई वर्ष बीत गए। भगवान श्री ऋषभ प्रभु का थी। इसके सच और झूठ की परीक्षा किए बिना ही निर्वाण हो गया। अब मरीचि के लिए स्वतंत्र विचरण कपिल ने भगवाँ वस्त्र धारण किए। तब मरीचि के हृदय का मार्ग खुला था, किन्तु उसमें रही हुई विचार-श्रद्धा में संतोष व्याप्त हुआ। उसके छोटे से लोभ ने मिथ्यात्व ने उसको भगवान ऋषभ प्रभु के साधु संघ के साथ ही के उदय को जगाकर आत्मा को अंधकार में फेंक दिया। रहने दिया। फिर भी एक पल ऐसा आया जब मरीचि इस प्रकार कपिल से आरंभ हुई मिथ्यादर्शन की कुल्हाड़ी की विचार-ज्योत आँधी में अटक गई। का हत्था बन गया। मरीचि बीमार हुआ। शिष्य तो उसके कोई भी धर्म संयम में है और यहाँ असंयम में भी है।' था नहीं। उसकी सेवा कौन करे? निर्ग्रन्थ साधुओं की मात्र इतने से सत्य मार्ग से विपरीत वचन से मरीचि के आचार संहिता असंयमी-मरीचि की सेवा करने से लिए संसार का दीर्घ परिभ्रमण खड़ा हो गया। मरीचि रोकती थी। तब मरीचि के मन में व्याधि की एक आँधी और कपिल की एक जोडी बन गई। मरीचि के जीवन आयी. जिससे उसकी विचार-ज्योत डगमगा गई। के अंतिम पल तक भी उसके विपरीत-प्ररूपण का यह मरीचि ने सोचा कि 'ये मुनि कैसे हैं कि उन्होंने अपनी पाप अनालोचित ही रहा एवं उसने भगवाँ वेश में ही आँख की शर्म भी खो दी। मैंने कितने कुमारों को देह त्याग किया। प्रतिबोध करके उनके संघ में शामिल किये हैं, फिर भी आज मैं बीमार पड़ा हूँ तब भी वे मेरे पास नहीं फटकते।' अत: मरीचि ने निर्णय किया कि अब कोई वैरागी आवे 0 बी-६१, सेठी कालोनी, जयपुर महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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