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________________ को किसी प्रकार की सहायता देना या चुरायी हुई वस्तु हुआ था। उसके जीवन और भाग्य को नियंत्रित करती को खरीदना भी वर्जित है। चौथा व्रत स्वदार-संतोष थी कोई परोक्ष अलौकिक सत्ता। महावीर ने ईश्वर के है, जो एक ओर काम-भावना पर नियमन है, तो दूसरी इस संचालक रूप का तीव्रता के साथ खण्डन कर इस और पारिवारिक संगठन का अनिवार्य तत्त्व है। पाँचवें बात पर जोर दिया कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का अणुव्रत में श्रावक स्वेच्छापूर्वक धन-सम्पत्ति, नौकर- निर्माता है। उसके जीवन को नियंत्रित करते हैं, उसके चाकर आदि की मर्यादा करता है। द्वारा किये गये कार्य। इसे उन्होंने 'कर्म' कह कर तीन गुणव्रतों में प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने पुकारा। वह स्वयं कृत कर्मों के द्वारा ही अच्छे या बुरे पर बल दिया गया है। शोषण की हिंसात्मक प्रवृत्तियों फल भोगता है। इस विचार ने नैराश्यपूर्ण असहाय के क्षेत्र को मर्यादित एवं उत्तरोत्तर संकुचित करते जाना जीवन में आशा, आस्था और पुरुषार्थ का आलोक ही इन गुणव्रतों का उद्देश्य है। छठा व्रत इसी का विधान बिखेरा और व्यक्ति स्वयं अपने पैरों पर खड़ा होकर करता है। सातवें व्रत में योग्य वस्तुओं के उपभोग को कर्मण्य बना। सीमित करने का आदेश है। आठवें में अनर्थदण्ड ईश्वर के संबंध में जो दूसरी मौलिक मान्यता अर्थात् निरर्थक प्रवृत्तियों को रोकने का विधान है। जैन दर्शन की है, वह भी कम महत्व की नहीं। ईश्वर चार शिक्षाव्रतों में आत्मा के परिष्कार के लिए एक नहीं, अनेक हैं। प्रत्येक साधक अपनी आत्मा को कुछ अनुष्ठानों का विधान है। नवाँ सामाजिक व्रत जीतकर, चरम साधना के द्वारा ईश्वरत्व की अवस्था समता की आराधना पर, दसवाँ संयम पर, ग्यारहवाँ को प्राप्त कर सकता है। मानव जीवन की सर्वोच्च तपस्या पर और बारहवाँ सुपात्रदान पर बल देता है। उत्थान रेखा ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । इस विचार-धारा इन बारह व्रतों की साधना के अलावा श्रावक या आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त किया। आज की के लिए पन्द्रह कर्मादान भी वर्जित है अर्थात उसे ऐसे शब्दावली में कहा जा सकता है कि ईश्वर के एकाधिकार व्यापार नहीं करने चाहिए, जिनमें हिंसा की मात्रा को समाप्त कर महावीर की विचारधारा ने उसे जनतंत्रीय अधिक हो या जो समाज-विरोधी तत्त्वों का पोषण को पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित कर सबके लिए प्राप्य बना करते हों। उदाहरणत: चोरों-डाकुओं या वैश्याओं को दिया। शर्त रही जीवन की सरलता, शुद्धता और मन नियुक्त कर उन्हें अपनी आय का साधन नहीं बनाना की दृढ़ता। जिस प्रकार राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति चाहिए। इस व्रत-विधान को देखकर यह निश्चित रूप आज प्रत्येक नागरिक के लिए सुगम है, उसी प्रकार आ से कहा जा सकता है कि महावीर ने एक नवीन और ये आध्यात्मिक अधिकार भी उसे सहज प्राप्त हो गये आदर्श समाज-रचना का मार्ग प्रस्तुत किया, जिसका हैं। शूद्रों का और पतित समझी जाने वाली नारी जाति आधार तो आध्यात्मिक जीवन जीना है, पर जो मार्क्स का समुद्धार करके भी महावीर ने समाज-देह को पुष्ट किया। आध्यात्मिक उत्थान की चरम सीमा को स्पर्श के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न नहीं है। करने का मार्ग भी उन्होंने सबके लिए खोल दिया, चाहे ईश्वर का जनतंत्रीय स्वरूप - वह स्त्री हो या पुरुष, चाहे वह शूद्र हो या चाहे और ईश्वर के संबंध में जो जैन विचारधारा है, वह कोई। भी आज की जनतंत्रात्मक और आत्मस्वातन्त्र्य की विचारधारा के अनुकूल है। महावीर के समय का - सी-२३५ ए, दयानन्द मार्ग, समाज बहुदेवोपासना और व्यर्थ के कर्मकाण्ड से बँधा तिलक नगर, जयपुर-४ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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