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________________ सामग्री का तो संचय करेंगे नहीं, आवश्यक सामग्री को बढ़कर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी भी दूसरों के लिए विसर्जित करेंगे। आज के संकट नहीं रह जाता। योग साधना की यही चरम परिणति है। काल में संग्रह-वृत्ति (होर्डिंग हेबिट्स) और तज्जनित संक्षेप में महावीर की इस विचारधारा का अर्थ व्यावसायिक लाभ-वृत्ति पनपी है, उससे दूर हम तब है कि हम अपने जीवन को इतना संयमित और तपोमय तक नहीं हो सकते, जब तक कि अपरिग्रह-दर्शन के बनायें कि दूसरों का लेशमात्र भी शोषण न हो, साथ इस पहलू को हम आत्मसात् न कर लें। ही स्वयं में हम इतनी शक्ति, पुरुषार्थ और क्षमता भी व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो, इसका दार्शनिक अर्जित कर लें कि दूसरा हमारा शोषण न कर सके। पहलू इतना है कि व्यक्ति स्वप्नों तक ही न सोचे, जीवन-व्रत-साधना - परिवार के सदस्यों के हिता का हा रक्षा न कर, वरन् प्रश्न है ऐसे जीवन को कैसे जिया जाए ? जीवन उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर में शील और शक्ति का यह संयम कैसे हो ? इसके लिए अग्रसर हो। आज प्रशासन और अन्य लोगों में जो महावीर ने “जीवन-व्रत-साधना" का प्रारूप प्रस्तत अनैतिकता व्यवहृत है, उसके मूल में “अपनों के प्रति किया। साधना-जीवन को दो वर्गों में बाँटते हए उन्होंने ममता” का भाव ही मूल रूप से प्रेरक कारण है । इसका बारह व्रत बतलाये। प्रथम वर्ग, जो पूर्णतया इन व्रतों अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व से मुक्त की साधना करता है. वह श्रमण है. मनि है. संत है और हो जाय । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना है कि व्यक्ति दसरा वर्ग, जो अंशत: इन व्रतों को अपनाता है, वह “स्व” के दायरे से निकलकर सब तक पहुँचे। स्वार्थ श्रावक है, गृहस्थ है, संसारी है। की संकीर्ण सीमा को लांघ कर परार्थ के विस्तृत क्षेत्र इन बारह व्रतों की तीन श्रेणियाँ हैं – पाँच में आये। उसके जीवन की यही साधना है। महापुरुष रुष अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अणुव्रतों . इसी जीवन-पद्धति पर आगे बढ़ते हैं। महावीर क्या, क्या, में श्रावक स्थूल हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और बुद्ध सभी इस व्यामोह से परे हटकर आत्मजयी बने। परिग्रह का त्याग करता है। व्यक्ति तथा समाज के जो जिस अनुपात में इस अनासक्त भाव को आत्मसात् जीवन-यापन के लिए वह आवश्यक सक्ष्म हिंसा का कर सकता है, वह उसी अनुपात में लोक सम्मान का त्याग नहीं करता। जबकि श्रमण इसका भी त्याग करता अधिकारी होता है। आज के तथाकथित नेताओं के है, पर उसे भी यथाशक्ति सीमित करने का प्रयत्न करता व्यक्तित्व का विश्लेषण इसके आधार पर किया जा है। इन व्रतों में समाजवादी समाज रचना के सभी सकता है। नेताओं के संबंध में आज जो दृष्टि बदली आवश्यक तत्त्व विद्यमान है। है और उस नेता अर्थ का जो अपकर्ष हुआ है, उसके प्रथम अणुव्रत में निरपराध प्राणी को मारना पीछे यही लोक-दृष्टि सक्रिय है। निषिद्ध है, किन्तु अपराधी को दण्ड देने की छूट है। “अपने प्रति भी ममता न हो”- यह अपरिग्रह दूसरे अणव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विषय दर्शन का चरम लक्ष्य है। श्रवण संस्कृति में इसीलिए में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निषिद्ध शारीरिक कष्ट सहन की ओर अधिक महत्व दिया है। है। तीसरे व्रत में व्यवहार शुद्धि पर बल दिया गया है। तो दूसरी ओर इस पार्थिव देह विसर्जन (सल्लेखना) का व्यापार करते समय अच्छी वस्तु दिखाकर घटिया दे विधान किया गया है। वैदिक संस्कृति में जो समाधि देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप-तोल अवस्था या संत मत में जो सहजावस्था है, वह इसी तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आचरण करना निषिद्ध कोटि की है। इस अवस्था में व्यक्ति “स्व” से आगे है। इस व्रत में चोरी करना तो वर्जित है ही, किन्तु चोर महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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