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________________ 38993GRA 22082908298 मुनि परंपरा के निर्वाहक आचार्य भरतसागरजी 0 चंदनमल जैन 'अजमेरा' परम पूज्य ज्ञान दिवाकर उपसर्ग विजेता, मर्यादा अनुवाद किया है। आपकी सत्साहित्य प्रकाशन प्रसारण शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति बागड़ धरा के महर्षि गुरु पुंगव में विशेष अभिरुचि थी। गुरुदेव भरत सागर जी अपने १०८ आचार्य भरत सागर जी महाराज को तीर्थराज ज्ञान-ध्यान की मधुर सुरभि से चहुँ दिशि को सुरभित सम्मेदशिखरजी में सन् १९७२ में कार्तिक शुक्ला कर चुके थे। एवं भव्यजनों को सन्मार्ग का अवबोध प्रतिपदा के दिन उनके गुरु परम पूज्य आचार्य १०८ कराकर जैन धर्म की अपूर्व प्रभावना कर चुके थे। विमल सागर जी द्वारा मुनिपद पर दीक्षित किया गया। आपके इस महत्कार्य में गणिनी परम पूज्य १०५ उन्हें भरत चक्रवर्ती के समान विरक्त ज्ञान-ध्यान में लिप्त आर्यिका स्याद्वादमती माताजी का एवं ब्र. प्रभा बहिन भावों से विशुद्ध परिणामों की निर्मलता देख भरत सागर का योग मिला। नाम दिया। आचार्य भरत सागर जी में संघ संचालन की मुनि भरत सागर जी गुरु भक्ति के प्रति प्रगाढ़ अद्भुत क्षमता थी। मैंने स्वयं ने प्रत्यक्ष सम्मेदशिखरजी, अनुराग रखते थे। अनवरत अध्ययन-अध्यापन में निरत सोनागिरजी, जयपुर, निवाई, बांसवाड़ा, लोहारिया, रहते। वे अपनी प्रवचन-शैली से गुरुवर्य को प्रभावित कुचामन आदि विख्यात स्थानों पर उनके अनुशासित कर गये। अतः उन्हें उपाध्याय पद से संस्कारित किया रहकर स्वाध्याय, प्रवचन उपदेशादि को सुना। वे परम गया। वास्तव में वे संघ में उपाध्याय पद के सुयोग्यतम तपस्वी रस परित्यागी महर्षि थे। मुनि थे। उनके पावन प्रयास से भारतवर्षीय अनेकांत विधि का विधान विचित्र होता है। पौष कृष्ण विद्वत्परिषद् की स्थापना हुई, जो जैन साहित्य जगत द्वादशी को सन् १९९४ गुरुवार के दिन आचार्य विमल में अपना वर्चस्व रखती है। सागरजी तपोनिधि, तीर्थराज पर समाधिस्थ हो गये। परम पूज्य आचार्य भरत सिन्धु को युगों तक पूर्व में निश्चित हो चुका था कि इन्हें ही पट्टाचार्य बनाया जाना जाता रहेगा, उनका मार्ग-दर्शन सदैव चिरस्मणीय जायेगा। आपने सोनागिरि तीर्थक्षेत्र में प्रायश्चित शास्त्र रहेगा। __ रहेगा। ०९/अ, आयतन, एकता पथ रहस्य शास्त्रों का अध्ययन कराया था। पूरा संघ इनसे श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर (राज.) लाभान्वित हुआ। आचार्य पद पर रहते हुए आपने अलौकिक जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के दर्पण, तिरने की कला, वीर शासन जयंती पुस्तकें साथ-साथ औषधिस्वरूप भी है, उसी लिखी हैं। प्रकार विद्वत्ता लौकिक प्रयोजन-साधक होती हुई मोक्ष का कारण भी होती है। धम्मरसायन (प्राकृत) का भी आपने हिन्दी में महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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