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________________ बिल्कुल शान्त करना बड़े महत्व की बात है। विचारों में दो नासा-पुट। इस तरह बिल्कुल एक-से होकर भी के चक्र को जोर से रोके बिना एकाग्रता होगी कैसे? एक मनुष्य देवतुल्य होता है, तो दूसरा पशु-तुल्य । ऐसा बाहरी चक्र तो किसी तरह रोक भी लिया जाय, परन्तु क्यों होता है? एक ही परमेश्वर के बाल-बच्चे हैं, 'सब भीतरी चक्र तो चलता ही रहता है। चित्त की एकाग्रता एक ही खानि के।' तो फिर यह फर्क क्यों पड़ता है? के लिये ये बाहरी साधन जैसे-जैसे काम में लाते हैं, इन दो व्यक्तियों की जाति एक है, ऐसा विश्वास नहीं वैसे-वैसे भीतर के चक्र अधिक वेग से चलने लगते होता। एक नर का नारायण है, तो दूसरा नर का वानर । हैं। आप आसन जमाकर तनकर बैठ जाइये, आँखें मनुष्य कितना ऊंचा उठ सकता है, इसका स्थिर कर लीजिये। परन्तु इतने से मन एकाग्र नहीं हो नमूना दिखानेवाले लोग पहले भी हो गये हैं और आज सकेगा। मुख्य बात यह है कि मन का चक्र बन्द करना भी हमारे बीच हैं। यह अनुभव की बात है। इस नरसधना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मन की स्थिति बदले देह में कितनी शक्ति है, इसको दिखानेवाले संत पहले बिना एकाग्रता नहीं हो सकती। मन की स्थिति शुद्ध हो गये हैं और आज भी हैं। इस देह में रहकर यदि मनुष्य होनी चाहिए। केवल आसन जमाकर बैठने-से वह प्राप्त ऐसी महान करनी कर सकता है, तो फिर भला मैं क्यों नहीं हो सकती। इसके लिए हमारे सब व्यवहार शुद्ध न कर सकंगा? मैं अपनी कल्पना को मर्यादा में क्यों होने चाहिए। व्यवहार शुद्ध करने के लिए उसका उद्देश्य बांध लँ? जिस नर देह में रहकर दूसरे नर वीर हो गये, बदलना चाहिए। व्यवहार व्यक्तिगत लाभ के लिए, वही नर देह मुझे भी मिली है, फिर मैं ऐसा क्यों? कहींवासना-तृप्ति के लिए अथवा बाहरी बातों के लिए नहीं न-कहीं मुझसे भल हो रही है। मेरा यह चित्त सदैव करना चाहिए। बाहर जाता रहता है। दूसरे के गुण-दोष देखने में वह व्यवहार तो हम दिनभर करते रहते हैं। आखिर बहुत आगे बढ़ गया है। परन्तु मुझे दूसरे के गुण देखने दिन भर की खटपट का हेतु क्या है? 'यह सारा परिश्रम, की जरूरत क्या है? “दूसरे के गुण-दोष क्यों देखू? इसलिए तो किया था कि अन्त की घड़ी मीठी हो।' मुझ में क्या उनकी कमी है?" सारी खटपट, सारी दौड-धूप इसीलिए न कि हमारा भगवान ने चित्त की एकाग्रता के लिए इस तरह अतिम दिवस मधुर हो जाये? जिंदगी भर कडुआ विष बैठो, इस तरह आँखें रखो, इस तरह आसन जमाओं क्यों पचाते हैं ? इसीलिए कि अंतिम घड़ी, वह मरण, आदि सूचनाएँ नहीं दीं, ऐसी बात नहीं है। परन्तु इन पवित्र हो जाये। दिन की अंतिम घड़ी शाम को आती सबसे लाभ तभी होगा, जब पहले चित्त की एकाग्रता है। आज के दिन का सारा काम यदि पवित्र भाव से के हम कायल हों। मनुष्य के चित्त में पहले यह जम किया होगा, तो रात की प्रार्थना मधुर होगी। वह दिन जाय कि चित्त की एकाग्रता आवश्यक है, फिर तो का अंतिम क्षण यदि मधुर हो गया, तो दिन का सारा मनुष्य स्वतः ही उसकी साधना और मार्ग ढूँढ़ निकालेगा। काम सफल हुआ समझो। तब मन एकाग्र हो जायेगा। एकाग्रता के लिए ऐसी जीवन-शुद्धि आवश्यक - Kothari Bhawan, है। बाह्य वस्तुओं का चितंन छूटना चाहिए। मनुष्य B-79, Sainik Farms, Lane W-3, की आयु बहुत नहीं है। परन्तु इस थोडी सी आयु में Western Avenue, भी पारमेश्वरीय सुख का स्वाद लेने की सामर्थ्य है। दो New Delhi-110062 मनुष्य बिल्कुल एक ही सांचे में ढले, एक-सी छाप लगे हुए, दो आँखें, उनके बीच एक नाक और उस नाक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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