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________________ प्रगट हुआ। उन्होंने चतुरंगिणी सेना के साथ छह खण्ड पृथ्वी पर दिग्विजय की। लौटने पर राजधानी अयोध्या के प्रवेश द्वारा पर चक्ररत्न अटक गया। एक भी शत्रु शेष रहने पर चक्ररत्न राजधानी में प्रवेश नहीं करता है। विचार-विमर्श पश्चात् ज्ञात हुआ कि महाराजा भरत अनुज पोदनपुर के महाराजा बाहुबली ने अभी तक महाराजा भरत की अधीनता स्वीकार नहीं की है, जिससे उनका चक्रीत्व पूर्ण न होने से चक्ररत्न राजधानी में प्रवेश नहीं कर पा रहा था । भरत ने अनुज बाहुबली को कहलाया कि बाहुबली आकर मेरे चक्रीत्व यज्ञ का स्वयं समापन करें। तब बाहुबली ने इसको धमकी समझा। तब बाहुबली ने अपने दूत से कहलवा दिया कि पोदनपुर का शासन स्वतंत्र है और रहेगा, उसे अधीनता स्वीकार नहीं है। वह अपनी महत्ता युद्धभूमि में स्वीकार कराये । दोनों ओर की चतुरंगिणी सेनायें रणभूमि में आ जुटी, तब मंत्रिपरिषद्, सेनाध्यक्ष और सेनापतियों का मण्डल वहाँ एकत्रित हो गया। युद्ध आरम्भ होने वाला ही था, तभी सेनापतियों ने कहा - सगे भाईयों के युद्ध में हम सेनापति सम्मिलित नहीं होंगे। द्वन्द्व युद्ध से वे लोग जय-विजय का स्वयं निर्णय करें। तब दोनों भाईयों ने मंत्रिपरिषद् और सेनापतियों की बात से सहमति जताई और द्वन्द युद्ध की घोषणा कर दी। जिसमें जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध, मल्लयुद्ध निश्चित हुए। तीनों युद्ध में बाहुबली विजयी रहे, फिर पराजित भरत ने बाहुबली पर चक्र घात किया। लेकिन चक्र बाहुबली की तीन प्रदक्षिणा करके भरत के पास लौट गया और बाहुबली की जयपराजय से आकाश गुंजायमान हो गया। भरत ग्लानि से क्षुब्ध मलिन मुख लिए पृथ्वी को देखते खड़े थे। वह चाह रहे थे कि पृथ्वी फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ । दूसरी ओर बाहुबली के मस्तिष्क में द्वन्द्व मचा हुआ था । ज्येष्ठ भ्राता ने सत्ता के लोभ में विवेक को भुला दिया है। यही महत्वाकांक्षा विनाश की मूल है। Jain Education International मेरा मार्ग पिता वाला है, मुनिदीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करने का है। मैंने राज्य संपदा के लोभ में आकर बड़े भाई भरत का अपमान कर अपकीर्ति कमाई । मैंने बाहु बल के अहंकार से द्वन्द्व युद्ध किया है। मुझे उनके चक्रीत्व यज्ञ में सहायक होना चाहिए था, किन्तु मैंने विघ्न डाला। मेरे पिता ने जिस राज्य संपदा को तृण समान समझ कर त्यागा था उसी का मैं लोभी बना। धिक्कार है मुझे, मैं अब इस मायावी का त्याग कर मुनि दीक्षा लूंगा और कठिन तपस्याओं की आराधना साध मोक्ष संपदा का वरण करूँगा। बाहुबली भरत के चरणों से लिपट क्षमा- पश्चाताप के आंसू बहा रहे थे। मेरे अहम् ने मुझसे ये सारे अकृत्य कराये हैं, आपको शारीरिक और मानसिक क्लेश मैंने दिया है। हमारे ९९ भाईयों और दोनों बहिनों ने पिता के महान विचारों को समझा और उनका पथ अनुसरण किया। उस आदर्श को मेरे अहंकार ने मुझे भुलवा दिया था। आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मैं वन को जा रहा हूँ, मुनिव्रत धारणकर मोक्ष प्राप्त करूँगा। तभी स्वयं चक्रवर्ती भरत, उपस्थित मंत्रिपरिषद्, सेनानायक, सैनिक उपस्थित प्रजागण सभी के द्वारा बाहुबली की जयकार से गगन गुंजित हो उठा । तभी वह कामदेव की साक्षात् प्रतिमूर्ति सारे राजसी ठाठ-बाटों को छोड़कर वन को प्रस्थान कर गये । गहन वन के मध्य पहुँच कर महाराजा बाहुबली ने अपने राजसी वस्त्राभूषणों को उतार फेंका, दिगम्बर बन गये और शिलाखण्ड पर पालथी मार कर बैठ गये हाथों की मुट्ठियों से कुन्तल केश राशि उखाड़ फेंकी और वहीं पर खड्गासन में खड़े हो गये। तीन बार “ॐ नमः सिद्धेभ्यः” कह कर ध्यानस्थ हो गये। दिन पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह, पक्ष पर पक्ष, मास पर मास बीतते रहे । ऋतुओं जाड़ा-गर्मी, वर्षा के झंझावात आये, चले गये । परन्तु तपस्वी अचल- अटल बना उसी भूमिखण्ड तपस्या में लीन रहा। कंटीली वन लतायें जांघों से होती बाहुओं से लिपटती कानों तक महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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