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________________ । पहली प्रतिमा काम सम्पन्न । बाहुबली प्रतिमा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि श्रीमती चन्द्रकला जैन श्रवणबेलगोला के गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान १२००० मुनियों के संघ सहित दक्षिण भारत चले गये। की पावन प्रतिमा ने १०२५ वसन्त, हेमन्त, ग्रीष्म, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी भद्रबाहु मुनि से दीक्षा ग्रहण शरद, शिशिर काल देखे तथा मध्य युग में सहस्र जीवन कर ली और मुनि संघ के साथ वह दक्षिण भारत चले संघर्ष, उत्थान-पतन, सुख-दुःखमूलक परिसर-परिवेश गये। देखे। उस पावन प्रतिमा की आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त भद्रबाहु ने विशाख मुनि को मुनिसंघ का आचार्य चक्रवर्ती के सान्निध्य में सेनापति चामुण्डराय ने सन् पद देकर मुनिसंघ को चोलपाण्डय आदि राज्यों की ९८१ ई. में अपनी माता के निमित्त इन्द्रगिरि पहाड़ी यात्रा के निमित्त भेज दिया और स्वयं वन प्रवर्जित मुनि पर प्रतिष्ठा सम्पन्न करायी थी। चन्द्रगुप्त के साथ कटवप्र पर्वत पर रुक गये। वहाँ गोम्मटेश्वर और श्रवलबेलगोला दोनों ही शब्द उन्होंने तपस्यायें की और आयु के अंत में समाधिकन्नड़ भाषा के हैं। कन्नड़ में “बेल" का अर्थ है सफेद मरणपूर्वक प्राणों का विसर्जन किया। गुरु के पश्चात् और “गोल” का अर्थ है सरोवर। सफेद मूर्ति और भी चन्द्रगुप्त उसी पहाड़ी पर १२ वर्षों तक कठिन कल्याणी सरोवर के मेले से इस स्थान को श्रवणबेलगोला तपस्याओं की साधना करते रहे। उन्होंने भी समाधिकहते हैं। यहीं कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान बाहुबली की मरण द्वारा देह त्याग का लाभ लिया। जिस पहाड़ी पर विशाल मूर्ति उत्तर दिशा की ओर उन्मुख विराजमान श्रुतकेवली भद्रबाहु और चन्द्रमुनि ने तपस्या की, उसका है। वह मानव जाति को संसार की अनित्यता का मौन नाम बाद में चन्द्रगिरि पड़ा। जिस गुफा में वे निवास संदेश दे रही है। हिंसा-अहंकार, माया-लोभ की करते थे, उसका नाम चन्द्रगुफा पड़ा। निस्सारता का उज्वल दृष्टान्त प्रस्तुत कर रही है और आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जब युवराज थे, लोगों का भक्ति और मुक्ति तीर्थ बनी हुई है। तब उनका विवाह कच्छ और महाकच्छ राजा की विन्ध्यगिरि दक्षिण विस्तार में इन्द्रगिरि राजकुमारियों यशस्वी और सुनन्दा से हुआ। यशस्वी (दोड्डगिरि) और चन्द्रगिरि (चिक्कवेट) नाम की से भरतादि एक सौ पुत्र और ब्राह्मी नामक कन्या एवं पहाड़ियों की तलहटी में स्थित वसती (बस्ती) का नाम सुनन्दा से एक पुत्र बाहुबली और सुन्दरी नामक कन्या श्रवणबेलगोला है। इसका शांत वातावरण समशीतोष्ण का जन्म हुआ था। जब महाराज ऋषभदेव को नीलांजना ऋतुएँ साधकों के लिए अति अनुकूल हैं। इसे दक्षिण का नृत्य देखते-देखते वैराग्य हो गया, तब वे युवराज काशी, जैनबद्री, देवलपुर और मोहम्मदपुर भी कहा भरत को उत्तराखण्ड का और राजकुमार बाहुबली को जाता है। दक्षिण का शासन सौंपकर स्वयं मुनि दीक्षा लेकर उत्तर भारत में जब १२ वर्षों के अकाल की तपस्या करने वन खण्ड को चले गये। संभावना श्रुतकेवली भद्रबाहु को लगी तो मुनि भद्रबाहु महाराजा भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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