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________________ के पधारे ला पहुँच रही थीं। पांवों के पंजों के निकट बिच्छु, सर्प और दी कि जो भगवान बाहुबली की तीर्थयात्रा को चलना चीटियाँ बिल बनाकर बसेरा ले रही थे, परन्तु बाहुबली चाहे नि:संकोच चल सकता है। गंगवंशीय नरेश राचमल उग्र साधना में दत्तचित्त लगे थे। य संघ तब चकवर्ती भारत ने तीर्थंकर श्री ऋषभदेव के सहित नित्य आगे बढ़ते मंजिल पार कर रहे थे। एक समवशरण में जाकर अरहंत भगवान से जिज्ञासा प्रकट दिन ऐसा आया कि उस दुर्गम पथ पर अनेक प्रयासों की. कि भगवन ! तपस्वी बाहबली को इतनी कठोर के बाद भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। तब वह तपस्या के बाद भी कैवल्य क्यों नहीं हो रहा है? इन्द्रगिरि पर विचार-विमर्श के लिए रुक गये। दिनभर तीर्थंकर की वाणी खिरी - वत्स ! तपस्वी बाहबली के विचार विनिमय के पश्चात् भी कोई समाधान न के मन में एक भारी शल्य चुभ रही है कि मैं जिस भूमि निकला, तभी रात्रि में सब लोग निद्रा में अलमस्त थे, पर खडा हँ. वह चक्रवर्ती भरत की है। जिस समय उन्हें तब शासन देवी ने आचार्य नेमिचन्द्र, चामुण्डराय और इस शल्य का समाधान मिल जायेगा. उसी समय उन्हें उनकी माता को एक साथ स्वप्न देकर कहा कि कल मोक्ष हो जायेगा। तब भरत चक्रवर्ती ने समवशरण से प्रात:काल ऊषावेला से पूर्व अपने सब नित्य कर्मों से सीधे बाहुबली के चरणों में साष्टांग नमस्कार करते हुए निवृत्त होकर इन्द्रगिरि की सबसे ऊँची चोटी पर चढ़कर कहा - भगवन् ! आप कहाँ भूले हुए हैं। यह पृथ्वी चामुण्डराय सामने वाली बड़ी पहाड़ी सबसे ऊँची चोटी न कभी किसी की रही है, न कभी रहेगी। आप इस की बड़ी शिला का छेदन स्वर्ण बाण से कर दे। भगवान बात का त्याग करें कि यह धरती भरत की है। यह सुनते बाहुबली की प्रतिमा के संघ को दर्शन होंगे। ही तपस्वी बाहुबली को कैवल्य प्राप्त हो गया। इन्द्र ने शासन देवी के आदेशानुसार पुलकित मन से देवपरिषद् के साथ आकर भगवान बाहुबली का कैवल्य चामुण्डराय ने स्वर्ण बाण से सामने वाली पहाड़ी की महोत्सव उस भूमि पर मनाया और भरत चक्रवर्ती ने सबसे ऊँची और बड़ी चट्टान को बींध दिया। दशों उस तपस्या भूमि पर रत्नों से उनके कद की प्रतिमा का दिशायें प्रतिध्वनित हो उठीं। बींधी शिला की परतें झरने निर्माण करा कर उस भूमि पर उसकी स्थापना कर उस का क्रम कुछ देर तक चला और उस शिला में कामदेव स्थल को तीर्थधाम बना दिया। दूर-अतिदूर से भक्त सरीखा अति सुन्दर एक मुख बाहुबली भगवान का जन वहाँ की यात्रा के लिए आने लगे, लेकिन कालक्रम प्रगट हो गया। संघ ने भगवान बाहुबली की प्रतिमा के ने उस तीर्थधाम पर अपनी काली छाया बिखेरना आरंभ मुख दर्शनकर अपने को सराहा। भगवान गोम्मटेश्वर कर दिया। वह तीर्थ दुर्गम बन गया। मार्ग पर यात्रियों के जयकार से दोनों पहाड़ियाँ गुंजायमान हो उठीं। जय का आना-जाना बंद हो गया। गोम्मटेश्वर, जय बाहुबली। एक दिन श्री आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती चामुण्डराय ने मूर्ति बनाने के लिए शिल्पियों ने अपने शिष्य वीरवर चामुण्डराय की माता को उस को बुलाया। जैसी मूर्ति की आकृति बताई गई, तीर्थ की महानता का बखान सुनाया। माता प्रतिज्ञा से शिल्पकारों की छैनी उस बड़ी चट्टान को काटकर वैसी बैठी कि मैं जब तक उस तीर्थ की यात्रा कर उस ही आकृति बनाने में दत्तचित्त हो गई। चामुण्डराय ने बाहुबली भगवान की प्रतिमा के दर्शन न कर लूंगी, तब अपने राज्य के प्रधान शिल्पी अरिष्टनेमी को यह कार्य तक दूध और दूध से निर्मित वस्तुओं का उपभोग नहीं सौंपा था, उसे मुँह माँगा स्वर्ण देने की स्वीकृति दी थी। करूँगी। चामुण्डराय को माता की प्रतिज्ञा ज्ञात हुई। उन शिल्पकारों ने तन्मयता से ५७ फुट उन्नत कामदेव उन्होंने नगर और निकटवर्ती स्थलों में घोषणा करवा सरीखी मानव आकृति को संतुलित रूप में सृजित कर महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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