SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माध्यन्दिन-संहिता तथा साम-संहिता में एक बार भी अतएव, पुराणकार प्रत्येक धर्मप्राण साधु और पण्डित नहीं आया है। अथर्व वेद संहिता में नारक शब्द केवल को प्रसंगानुसार ऋषि या मुनि कहने में कोई अनौचित्य एक बार प्रयुक्त हुआ है।' नहीं मानते थे। जब बौद्ध और जैन आन्दोलन खड़े हुए, अब यह विश्वास दिलाना कठिन है कि जिस बौद्धों और जैनों ने प्रधानता ऋषि शब्द को नहीं, मुनि निवृत्ति का भारत के अध्यात्म-शास्त्र पर इतना अधिक शब्द को दी। इससे भी यही अनुमान दृढ़ होता है कि प्रभाव है, वह आर्येतर तत्त्व थी। किन्त, आर्यों के मुनि परम्परा प्राग्वैदिक रही होगी। 'ऋषि परम्परा और प्राचीन साहित्य में निवत्ति विरोधी विचार इतने प्रबल मुनि परम्परा के संबंध में, संक्षेप में हम इतना ही कहना हैं कि निवृत्तिवादी दृष्टिकोण को आर्येतर माने बिना चाहते हैं कि दोनों की दृष्टियों में हमें महान भेद प्रतीत काम चल नहीं सकता। होता है। जहाँ एक का झुकाव (आगे चलकर) इसीप्रकार ऋषि और मुनि शब्दों का युग्म भी हिंसामूलक मांसाहार और तन्मूलक असहिष्णुता की विचारणीय है। ऋषि शब्द का मौलिक अर्थ मन्त्रदृष्टा ओर रहा है, वहीं दूसरी का अहिंसा तथा तन्मूलक है, किन्तु मन्त्रों के द्रष्टा होने पर भी वैदिक ऋषि गृहस्थ निरामिषता तथा विचार-सहिष्णुता (अथवा होते थे और सामिष आहार से उन्हें परहेज नहीं था। अनेकान्तवाद) की ओर रहा है। इनमें से एक मूल में पुराणों में ऋषि और मुनि शब्द प्राय: पर्यायवाची समझे वैदिक और दूसरी मूल में प्राग्वैदिक प्रतीत होती है।' (डॉ. मंगलदेव शास्त्री)। इस अनुमान की पुष्टि इस बात गये हैं, फिर भी विश्लेषण करने पर यह पता चल जाता से भी होती है कि महंजोदरो की खुदाई में योग के प्रमाण है कि मुनि गृहस्थ नहीं होते थे। उनके साथ ज्ञान, तप, योग और वैराग्य की परम्पराओं का गहरा संबंध था। मिले हैं और जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव ऋषि और मुनि दो भिन्न संप्रदायों के व्यक्ति समझे जाते थे, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी थे। ‘मुनि शब्द का प्रयोग वैदिक संहिताओं में बहुत प्रकार लिपटी हुई है, जैसे कालान्तर में वह शिव के ही कम हुआ है। होने पर भी उसका ऋषि शब्द से कोई साथ समन्वित हो गयी। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों संबंध नहीं है।' (डॉ. मंगलदेव शास्त्री)। पुराणों में का यह मानना अयुक्ति-युक्त नहीं दिखता कि ऋषभदेव, ऋषि और मुनि के प्रायः पर्यायवाची होने का एक वेदोल्लिखित होने पर भी वेद पूर्व हैं। . कारण तो यही मानना होगा कि पुराणों का आधार । 'संस्कृति के चार अध्याय' वैदिक और प्राग्वैदिक संस्कृतियों का समन्वित रूप है। पृष्ठ ३०-३३ से साभार (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद) जिस जीवन के लिए प्राणी महान पाप करके धन उपार्जित करता है, वह जीवन शरद ऋतु के मेघ के समान शीघ्र नष्ट हो जाता है। कदाचित् बालू में पानी और आकाशपुरी में महापुरुष भले ही प्राप्त हो जावें, परन्तु इस असार संसार में सुख कभी प्राप्त नहीं हो सकता। 'वीरदेशना' से साभार महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-4/13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy