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________________ लिये होय हैं तातें विशुद्ध परिणाम हैं, बहुरि समस्त हे देव ! मुक्ति का कारणभूत जो तत्त्वज्ञान है, कषायों के मिटाने का साधन हैं। तातें शुद्ध परिणाम का वह निश्चयतः समस्त आगम के जानने पर प्राप्त होता कारण हैं, ऐसे अरहंतादिक परम मंगल हैं, परम इष्ट है सो मंदबुद्धि होने से वह हमें दुर्लभ है । इसप्रकार मोक्ष मानने योग्य हैं।' का कारणभूत जो चारित्र है, वह भी शरीर की दुर्बलता सर्वज्ञोपदेश के अनुसार कहे गये इन आर्ष वचनों के कारण पूर्ण पालन नहीं हो सकता, इसलिये आपकी से यह सिद्ध हो जाता है कि जिनेन्द्र भक्ति से संवर, भक्ति ही मुझे मुक्ति का कारण होवे । पूर्वोपार्जित पुण्य निर्जरा कर्मों का क्षय तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। से जो मेरी आपमें दृढ़ भक्ति व आस्था है, वही मुझे इस संसाररूपी समुद्र से पार होने के लिए जहाज के इस पंचम काल में संहनन व बुद्धि की हीनता समान होवे। श्री जिनेन्द्र दर्शन व पूजन से सम्यक्त्व व के कारण विशेष चारित्र तथा विशेष श्रद्धा व ज्ञान नहीं मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु केवल आपके नाम मात्र हो सकता, इसलिये जिनेन्द्र भक्ति ही क्रम से मुक्ति का से मोहनीय कर्म का नाश हो जाता है। आगम प्रमाणों कारण है, क्योंकि इस समय (पंचमकाल) में भरतक्षेत्र से यह सिद्ध होता है कि जिनभक्ति, पूजा, स्तवन, में उत्पन्न हुए मनुष्यों के साक्षात् मुक्ति का अभाव है। स्तुति, दर्शन मात्र आस्रव-बंध का कारण नहीं है, कहा भी है - किन्तु संवर, निर्जरा व मोक्ष का भी कारण है। इसलिए सर्वांगभावगमतः खलु तत्त्वबोधो जिनपूजा, भक्ति, दर्शन प्रत्येक श्रावक का एक आवश्यक मोक्षाय मृतमापि संप्रति दुर्घटेनः । कार्य है। वीतराग देव की मूर्ति के दर्शन से उनके अनन्त जाइया तथा कुतुबु तरुत्वयि भक्तिरेव, गुणों का स्मरण हो उठता है, उनके माध्यम से अपनी देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम् ।।८७१।। पं.व.प. आत्मविभूतियों का अनुभव होता है। -ऊँचा कुआ, हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर • फोन नं. २५६३२८९ यस्मै प्राज्ञाः कथ्यन्ते मनुष्याः, प्रज्ञामूलं द्वीन्द्रियाणां प्रसादः। मुह्यन्ति शोचन्ति तथेन्द्रियाणि, प्रज्ञालाभो नास्ति मूढ़ेन्द्रियस्य ।। - जिस बुद्धि की बुद्धिमान लोग कामना किया करते हैं, उस बुद्धि का मूल कारण इन्द्रियों की पवित्रता है। जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ मोह और शोक में डूबी रहती हैं, उस मोहाच्छन्न इन्द्रियों वाले व्यक्ति को सद्बुद्धि प्राप्त नहीं हो सकती अर्थात् वह विचार शील नहीं बन सकता। .. - शान्ति पर्वः महाभारत महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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