SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवीं सदी के शलाका महापुरुष आ. श्री शान्तिसागरजी महाराज और दिगम्बरत्व बीसवीं सदी में यदि किसी दिगम्बर जैनाचार्य का प्रभावक चरित्र व्यापक रूप में छाया रहा, तो वह प्रातः स्मरणीय युग-प्रधान आचार्य शान्तिसागरजी (सन् १८७२ - १९५५) महाराज का। उनका महनीय व्यक्तित्व, तप:तेज, असाधारण प्रतिभा, दूरदृष्टि एवं सहज करुणा-भाव इतना चमत्कारपूर्ण था कि जैन ही नहीं, जैनतर भी, रंक से लेकर समृद्ध-वर्ग भी, प्रशासकों से लेकर सामान्य वर्ग के लोग भी उनके प्रति निरन्तर भक्ति-भाव से ओत-प्रोत रहा करते थे। विरोधी - गण भी उनमें विवेक जागृत होने पर प्रायश्चित्त करते हुए देखे जाते थे । भारतीय संसद के प्रथम अध्यक्ष डॉ. जी. वी. मावलंकर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर - संचालक गुरु गोलवलकर, विश्वविख्यात लेखक, नोबेल पुरस्कार-विजेता एवं पत्रकार डॉ. लुई फिशर आदि उनके प्रशंसकों में से थे। देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी तो प्रारम्भ से ही उनके प्रति नतमस्तक रहा करते थे । ८८ आचार्य श्री शान्तिसागरजी उन ऐतिहासिक महापुरुषों में थे, जिन्होंने अनेक सदियों की दिगम्बर मुनि-विहीन रिक्तता की पूर्ति की है। सम्राट शाहजहाँ के परममित्र महाकवि बनारसीदास (१७वीं सदी) के “ अर्धकथानक " का जिन्होंने अध्ययन किया है, वे जानते ही हैं कि उन्हें दिगम्बर जैन मुनियों की कठोर चर्या की जानकारी तो जैन-ग्रन्थों से ज्ञात थी, किन्तु उनके साक्षात् दर्शनों के लिये वे अत्यन्त व्याकुल हो उठे थे। जब उन्हें उनके दर्शन प्राप्त नहीं हो सके, तो उन्होंने अपने तीन मित्रों- चन्द्रभान, उदयकरण तथा Jain Education International प्रो. (डॉ.) राजाराम जैन थानसिंह के साथ एक बन्द कमरे में नग्नता धारण कर ली और एक दर्पण के सम्मुख खड़े होकर निर्विकारमन से अपने नग्न - स्वरूप को देखकर कल्पना की थी कि दिगम्बर जैन साधु भी इसी प्रकार के होते होंगे। यही स्थिति सम्भवत: जैन भक्ति-पदों के सर्जक महाकवि भूधरदास के समय भी रही होगी। उन्हें भी सम्भवतः उनके दर्शन नहीं हो सके थे, इसीलिये उन्होंने भी उनकी भाव-कल्पना कर उनके विषय में - ते गुरु मेरे उर वसो.. . जैसे भक्ति-भरित अनेक पद्य लिखकर उनके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति की थी। CC राष्ट्रसन्त आचार्य श्री विद्यानन्दजी को, जिनके लिये कि आचार्य शान्तिसागर जी ने प्रारम्भ में ही कहा था कि – “तुम साधु बनोगे तथा साधु ही रहोगे..... अपने जीवन के प्रथम चरण में लगभग १३वर्ष तक उन्हें सान्निध्य में रहने का सुअवसर मिला था। उनके विषय में वे (आचार्य विद्यान्दजी) कहा करते हैं कि- “महामना आचार्य शान्तिसागरजी के सानिध्य में रहने से अनिर्वचनीय आनन्द एवं शान्ति मिलती थी । उनके सम्मुख बैठने से ऐसा अनुभव होता था मानों उत्तम क्षमा आदि दस धर्मों ने जीवन्त रूप धारण कर लिया है और जैसे हम उन्हीं धर्मों के मध्य घिरे हुए बैठे हों। "...“आ. विद्यानन्द जी ने कई बार उनकी योग-ध्यान की मुद्रा को देखकर कहा था । कि- “महामना यो न चलात् योगत: ” अर्थात् वे (शान्तिसागर जी) ऐसे महामना थे, जो योग-१ - ध्यान से कभी भी विचलित नहीं होते थे । कुछ लोग कहते हैं कि आचार्य शान्तिसागर जी महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/15 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy