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________________ दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मणा सावया तेय विणा। एकीभाव के पहले पद में आचार्य वादिराज झाणं झमणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सोपि ।।११॥ कहते हैं हे जिनसूर्य ! आपकी भक्ति मेरे जन्म-जन्म के जिणपूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्ति रूपेण। एकत्र किये हुये दुख देने वाले कर्मों का नाश करने के समाइट्ठी सावय धम्मो सो होइ मोक्ख, मग्गरओ॥१२॥ लिये समर्थ है तो ऐसा कौन-सा ताप है जो आपकी रयणसार भक्ति के द्वारा नहीं जीता जा सकता है अर्थात् जिनेन्द्र अर्थ- दान, पूजा, श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। भक्ति के द्वारा अनेकों भव के संचित कर्मों का नाश हो उपर्युक्त आर्ष वाक्यों से सिद्ध हो जाता है कि जाता है। जिनभक्ति उस धर्म का अंग है, जो धर्म प्राणी को संसार श्री वीरसेन स्वामी धवल व महाधवल जैसे दुख से निकाल कर मोक्ष सुख में ले जाता है, इसलिये महान ग्रन्थों में लिखते हैं - जो जिनभक्ति को आस्रव, बंध का कारण समझते हैं, जिनबिंब दंसणेण णिधत्ताणेकाचिदस्य विवे मिथ्या मार्ग के पोषक हैं। . मिच्छत्तादि कम्म कलापस्य खय दंसणादो।। जिणचरण बुरूहं णमंति जे परम भक्ति रायणा। धवल पु.६ पृष्ठ ४२७ जे जम्म वेल्लि मूलं खणे ति वरभाव सत्येण ।। अर्थ – जिनबिम्ब दर्शन से निधत्त और भावपाहुड, १५३॥ निकाचित रूप मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा __ अर्थ- जो पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनेन्द्र जाता है। जिससे जिनबिम्ब दर्शन प्रथम सम्यक्त्व उत्पत्ति के चरण कमल को नमे हैं, वे श्रेष्ठ भाव रूप शास्त्र का कारण होता है। से जन्म अर्थात् संसार रूपी बेल के मिथ्यात्वादि कर्म अरहंत णमोकारो संपहिय बंधादो रूपी मूल (जड़) को क्षय करै हैं। जो यह कहते हैं कि असंख्येजगुणा कम्म खयकारा । ओति तत्व वि मुणीणां पर का ध्यान व भक्ति करना मिथ्यात्व है। उसके लिये पबुत्तिप्प संगादो ।। जयधवल पु.१ पृष्ठ ९ स्वामी पूज्यपाद कहते हैं - अर्थ – अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परोभवति तादृशा। जो शा। अपेक्षा अनन्त गुणी कर्म निर्जरा का कारण है, इसलिये वर्तिदीपं यथोपास्यं भिन्ना भवति तादृशी ।।१२।।। अरहंत नमस्कार में मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। समाधिशतक अर्थ – यह जीव अपने से भिन्न अरहंत, सिद्ध , सर्वार्थसिद्धि में श्री पूज्यपाद आचार्य कहते हैं के स्वरूप (परमात्मा) की उपासना करके उन्हीं जैसा कि चैत्य, गुरु और शास्त्र की पूजा आदि क्रिया सम्यक्त्व परमात्मा हो जाता है। जैसे बत्ती दीपक से भिन्न होकर को बढ़ाने वाली सम्यक्त्व क्रिया है। भी दीपक की उपासना करके दीपक स्वरूप हो जाती है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी मोक्षमार्ग भक्तामर स्तोत्र के दसवें श्लोक में श्री प्रकाशक में लिखते हैं - 'बहरि त्रिलोक विर्षे जे मानतुंगाचार्य कहते हैं कि हे जगभूषण जगदीश्वर! अकृत्रिम बिम्ब विराजे हैं। मध्यलोक विषं विधिपूर्वक संसार में जो भक्त परुष आपके गणों का कीर्तन करके कृत्रिम जिनबिंब विराजे हैं, तिनके दर्शनादिक से स्वपर आपका स्तवन करते हैं. वे आपके समान भगवान बन भेद-विज्ञान होय, कषाय मंद होय शान्तभाव होय हैं जाते हैं तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है, क्योंकि वह वा एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हित की सिद्धि जैसे स्वामी किस काम का जो अपने दास को अपने समान केवली के दर्शनादिक तें होय वैसे होय है। अरहंतादि न बना सके। के स्तवन रूप जो भाव होय हैं सो कषायों की मंदता महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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