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________________ श्रावक के लिये जिनपूजन, जिनदर्शन, स्तवन, कुरान के हों, पुराण के हों, चाहे बाइबिल के हों, सिर्फ चिन्तवन, तत्त्वचर्चा से बढ़कर विशेष पुण्योपार्जन का इशारे हैं। जैसे राह में मील के पत्थर सिर्फ रास्ता और कोई उपाय नहीं है। यही क्रम से संसार-मुक्ति पाने बतलाने के लिये हैं, परन्तु मंजिल पर पहुँचने के लिये का उपाय है। तो रास्ते के पत्थरों को छोड़ते हुये स्वयं को चलना वर्तमान समय में कुछ लोग ऐसा कहने लग गये पड़ेगा, तभी मंजिल मिल सकती है। हैं कि शुद्धभाव होने चाहिये, मन्दिर में जाना या दर्शन भक्ति रस में डूबकर परम श्रद्धान से ही भक्ति करना आवश्यक नहीं है, घर में फोटू रखकर या परोक्ष का राज समझ में आता है। श्रद्धान, प्रतीति, विश्वास नमस्कार करने से ही पुण्यबंध हो सकता है। ऐसा वो सब एकार्थ हैं। जब दृढ़ श्रद्धान होता है, तब ही सच्ची ही लोग कह सकते हैं जिनका जिनवाणी (शास्त्रों) पर भक्ति उत्पन्न होती है। मनुष्य धार्मिक हो जाता है, दृष्टि श्रद्धान नहीं है और न जैन सिद्धान्त के अनुसार श्रावक बदल जाती है। धार्मिक व्यक्ति काँटों में भी फूल खोज क्रियाओं को ही करते हैं। जो थोड़ा कुछ करते भी हैं, लेता है, वह कभी दूसरे के दोष नहीं देखता है। भक्ति उन्हें रूढिवादी कहकर अपनी मनमानी करते हैं, जो से ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। भक्त का हृदय जिनदर्शन को प्रतिदिन करना आवश्यक नहीं समझते। सब प्रकार की चाह (इच्छा) रहित हो जाता है। किसी उन्हें अपने आप को जैन मानना भूल है। बिना बाह्य प्रकार की माँग नहीं रहती। भगवान के स्तवन-कीर्तन आलंबन के अंतरंग सुधार होना बहुत कठिन है। जो से अंतर के द्वार खुल जाते हैं, इसी का नाम जैनागम कहते हैं हमारे तो भाव शुद्ध हैं, देवदर्शन से क्या होगा में सम्यग्दर्शन है। अभ्यास (पुरुषार्थ) बढ़ जाता है। ? वे अपने आपको धोखा देते हैं, स्वयं के साथ छल जब अहिंसा, सत्य, विनय आदि गुण प्रकट हो जाते करते हैं। हैं और तुम्ही हो मंजिल, तुम्हीं हो मार्ग, तुम्हीं हो जिन मुनियों ने आत्मा को ही ध्येय बना लिया खोजनवाले, तुम्ही हो खोजे जाने वाले तथा ज्ञाता, था, उन्होंने भी अनेक शास्त्रों से श्लोकों से जिनभक्ति । ज्ञेय, ज्ञान सब भेद मिटकर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता की गंगा बहा दी है। मनि मानतंग ने भक्तामर की रचना है। सिर्फ (कवल) ज्ञान ही रह जाता है। की, जिसे पढ़कर-बोलकर मन भक्ति से भर जाता है। श्री जिनदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, जिनभक्ति, जिनदर्शन की महिमा से तो सारे आगम सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है - श्रद्धा भक्ति (दर्शन) (पुराण) भरे हुये हैं। से उत्पन्न सम्यग्ज्ञान, दर्शन और ज्ञान के द्वारा वैराग्य भगवान की भक्ति कोई शास्त्र नहीं है, कोई अथवा अपने ही ज्ञान में लीनता अथवा स्वभाव में विचार नहीं है, कोई विवाद नहीं है, कोई संवाद नहीं लीनता (रमणता) स्व में तल्लीन होना चारित्र यही है। भक्ति का अर्थ है - तन्मय हो जाना, लीन हो जाना। मोक्षमार्ग है, यही प्रत्यक्ष सिद्ध है। मोक्ष का अर्थ है जैसे-जैसे भगवान के स्वरूप में लीनता आयेगी, वैसे मुक्ति अर्थात् संस्कार के दु:खों से छुटकारा परमवैसे आंतरिक शक्ति का प्रादुर्भाव होता जायेगा। परम आनन्द जन्म-मरण रहित होना है। उल्लास, आंतरिक प्रसन्नता पैदा होना ही भक्ति का सार जो परम सुख प्राप्त करना चाहता है, उसे सर्व है। जब अपने में ऐसी दशा अनुभव करो, तो ही समझो प्रथम भगवान की पूजा, गुरू सेवा, स्वाध्याय (जिनेन्द्र कि भक्ति का रस उत्पन्न हो रहा है। भगवान के प्रति के बतलाये हुये, कहे हुये वचन शास्त्रों का अध्ययन) श्रद्धा-भक्ति का स्वरूप अनिर्वचनीय है, जोशब्दों द्वारा तप, और दान यह प्रतिदिन करना चाहिये। नहीं कहा जा सकता है। शब्द सीमित हैं, वेद के हों, जैसा श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है - महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/12 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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