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________________ [ यह बात, अच्छी तरह निर्णीत है कि जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का प्रभाव होता है, मनुष्यों की आत्माओं में भी वैसा ही प्रभाव पड़ता है, जिस समय किसी दुष्ट पुरुष का समागम हो जाता है तो उसके निमित्त से परिणाम भी खराब हो जाते हैं। जिस समय किसी धार्मिक और सज्जन का समागम हो जाता है, साधक, या सत्संग मिल जाता है, उस समय उसके निमित्त से परिणाम भी निर्मल हो जाते हैं, यह प्रभाव द्रव्य का ही समझना चाहिये। इसी प्रकार काल का प्रभाव - आत्मा पर पड़ता है, रात्रि में मनुष्य के परिणाम दूसरे ही हीते हैं, प्रातःकाल होते ही बदल कर उत्तम हो जाते हैं, जो वासनाएँ रात्रि में अपना प्रभाव डालती हैं वह अनायास ही प्रातःकाल होते ही बदल जाती हैं, यह काल का प्रभाव ही समझना चाहिये । जिनेन्द्र दर्शन (भक्ति) इसी प्रकार क्षेत्र का प्रभाव होता है, जो परिणाम घर में, बाजार में, ऑफिस में, दुकान में होते हैं, वे परिणाम किसी साधु निकेतन में या मन्दिर में जाते ही बदल जाते हैं, जो बातें घर में हमारे हृदय में विषयकषाय अथवा विकार, आकुलता उत्पन्न करती हैं, वे भगवान के मन्दिर और साधु निकेतन में नहीं होती इसीप्रकार हमारे जो भाव धर्म साधन में नहीं लगते हैं, वे मन्दिर तथा साधु सत्संग में लगने लगते हैं। । मन्दिर हमारे भावों को धर्म की ओर जाने का संकेत करता है । मन्दिर में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों निमित्तों की योग्यता है । वहाँ जाने पर वीतराग देव की सौम्य छवि के दर्शन होते हैं, दर्शन से हमारे आतंरिक भावों का विकास होता है, विकार कम होते हैं, आत्म Jain Education International डॉ. भँवरदेवी पाटनी प्रभा प्रकट होती है, यदि मन को सब तरफ से हटाकर दर्शन में लीन किया जावे तो । आज वर्तमान में इस पंचम काल में जितना धर्म साधन और परिणामों की निर्मलता जिनेन्द्र दर्शन, स्तवन, पूजन, भजन से होती है, वैसी और कहीं भी नहीं होती; न किसी से मिल सकती है। इसका कारण यह है कि आजकल का संहनन और मनोवृत्तियाँ की चंचलता कुछ ऐसी है कि अधिक समय तक न तो ध्यान ( एकाग्रता ) ही कर सकते हैं और न गृहस्थी में सदा शुभ परिणाम ही रख सकते हैं, आत्म चिंतवन तो बहुत दूर की बात है, निश्चयनय - निश्चयनय कहते हैं, पढ़ते हैं, निश्चयनय की बात सुनते भी हैं, परन्तु निश्चयनय आत्मरमणता को कहते हैं, जो इस समय हो ही नहीं सकता है। इस समय सम्यक् अवलंबन की हमको आवश्यकता है, वह अवलंबन जिनेन्द्र की वीतराग मुद्रा है, उस वीतराग प्रतिमा के सन्मुख बहुत देर तक हमारे भाव स्थिर रह सकते हैं अथवा यों कह सकते हैं कि जितनी देर प्रतिमा के सामने हम अपना उपयोग लगाते हैं, हमारे परिणाम निर्मल हो जाते हैं । ध्यान का महात्म्य यद्यपि बहुत बड़ा है, परन्तु मनोवृत्तियों की चंचलता के संस्कार तुरन्त वहाँ से उपयोग हटा देते हैं, इसलिए मन को एकाग्र करने के लिये जिनेन्द्र स्तवन जिनेन्द्र के गुणों का चिंतन करना चाहिये, जितने जितने हम भक्ति रस में डूबते जायेंगे । परिणामों की भटकन दूर होती चली जायेगी और साथ में अतिशय पुण्य का बंध होगा। जितना जितना भक्तिरस में डूबने का वीतराग के गुणों के सुमरण करने का अभ्यास बढायेंगे तो भावों में एकाग्रता आने लगेगी। महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/11 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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