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________________ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यपने को एक ही वस्तु प्रतिसमय माना गया है उसी को दर्शाते हुए स्तुतिकार ने कहा है - य एवास्तमुपैषि त्वं स एवोदीयसे स्वयम्। स एव ध्रुवतां धत्से य एवास्तमितोदितः ।।२०।११ लघुतत्त्वस्फोट जो ही आप व्यय को प्राप्त होते हैं, वही आप स्वयं उत्पाद को प्राप्त होते हैं और जो ही आप व्यय होकर उत्पाद को प्राप्त होते हैं. वही ध्रुवपने को धारण करते हैं। यहाँ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यपने से द्रव्य को तन्मय बताया है। आचार्य समन्तभद्र ने घट का व्यय मौलि का उत्पाद और स्वर्ण के ध्रुवरूप सद्भाव के उदाहरण के माध्यम से एक ही वस्तु की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता सिद्ध की है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने द्रव्य के लक्षण को बताते हुए ‘उत्पादव्ययध्रौव्य युक्तं सत्' 'सत् द्रव्यलक्षणम्' कहा ही है। स्तुति के द्वारा संयम और तप का भी माहात्म्य दिखलाया है - हे प्रभो ! निरन्तर ज्ञानरूपी रसायन का पान करते हुए और बहिरंग तथा अन्तरंग संयम का निर्दोष पालन करते हुए निश्चित ही मैं तुम्हारे समान हो जाऊँगा। इसीप्रकार नौवीं स्तुति में संयम और तप को लेकर स्तुति की है - हे भगवन् ! आपने परमार्थ के विचार के सार को अपनाया, निर्भय होकर एकाकी रहने की प्रतिज्ञा की, अन्तरंग-बहिरंग परिग्रह का त्याग किया और प्राणियों पर दया भाव किया। आपका पक्षपात रहित होते हुए भी समस्त प्राणियों में पक्षपात था। आतापन योग करते समय सूर्य की तीक्ष्ण किरणें आपके शरीर को जलाती थीं किन्तु आप कर्मफल के परिपाक की भावना में उन्हें अमृत के कणों के समान मानते थे। रात्रि में शवासन से स्थित रहते हुए शृंगालों ने आपके सूखे शरीर को अपने दाँतों से काटा। बुद्धिमान रोगी जैसे रोग को दूर करने के लिए उपवास करते हैं, वैसे ही आपने अनादि रोग को दूर करने के लिए एकमास, अर्द्धमास के उपवास किये । इसप्रकार सम्पूर्ण आत्मबल से संयम को धारण करके कषाय के क्षय से केवलज्ञानी हुए और मोक्षमार्ग का उपदेश दिया। ___ आचार्य अमृतचन्द ने ज्ञान के साथ संयम-तप आदि को आवश्यक माना है। समयसार में विशेषरूप से भेदविज्ञान का कथन होने से आचार्य अमृतचन्द्र ने संयम-तप पर जोर नहीं दिया। अतः कुछ स्वाध्यायियों ने तप-संयम को गौणकर व्याख्यान देना शुरु किये और आचार्य अमृतचन्द्र के विषय में भी कहना शुरु किया कि इन्होंने ज्ञान को ही बल दिया है। ज्ञान की मुख्यता में इन्हीं का उल्लेख किया गया। यह दोष एकांगी अध्ययन का फल होता है। किसी भी आचार्य का समग्र साहित्य पढ़कर ही उसके प्रमाण देना उचित होता है। स्तुतिकर्ता ने १९वीं स्तुति में कारण-कार्य सम्बन्ध को दर्शाते हुए अभेदनय की दृष्टि में कर्ता, कर्म और क्रिया तीनों एक ही पदार्थ हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, इसलिए आराध्य में उनका भेद नहीं किया। बौद्धाभिमत ज्ञानद्वैत का निराकरण कर जैनसम्मत ज्ञानाद्वैत का वर्णन भी विस्तार से किया है। बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डनकर जिनमत की स्थापना महत्वपूर्ण है ।१२ सामान्य विशेष की सम्यक् मीमांसा इस स्तुतिकाव्य में श्री अमृतचन्द्रसूरि के द्वारा की गई है - सामान्यस्योल्लसति महिमा किं बिनासौ विशेषै - नि: सामान्या स्वमिह किममी धीरयन्ते विशेषाः। एकद्रव्यग्लपितविततानन्त पर्याय पुञ्जो, दृक्संवित्तिस्फुरित सरसस्त्वं हि वस्तुत्वमेषि ।।६ ॥२२ महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014025
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 2007
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year2007
Total Pages312
LanguageHindi
ClassificationSeminar & Articles
File Size11 MB
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